शनिवार, 1 सितंबर 2012

'सखी' के मई 2013 के राजिंदर कौर कहानी पर मेरे चित्र लगे है.









'सखी' के अगस्त २०११ के पेज १०६,१०७,१०८ पर 'सरोगेट मदर' निर्मला सुरेन्द्रन की कहानी पर मेरे चित्र लगे है.


शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

आम आदमी कैसे जीता होगा !

डॉ.लाल रत्नाकर 
भारत के इस घिनौने समाज में आम आदमी कैसे जीता होगा, इन दिनों "जब संकट मुकाबिल हो और कानून लिखा हुआ हो" "उसका अनुपालन करने वाला अनुपालन ही न कर रहा हो" तो रास्ता ही क्या बचता है. उससे बड़ा अधिकारी जिसे इस बात का ज्ञान ही न हो कि करना क्या है ? और उससे भी ऊपर !
भगवान भरोसे देश चल रहा है कहते हैं देश तो दौड़ रहा है पंख लगाकर सोने के चाँदी के और भ्रष्टाचार पैदल है धरती पकड़कर चल रहा है, आम आदमी के साथ साथ खैर 'देर है अंधेर नहीं' कहावत कब चरितार्थ होगी देखना है.कुल मिलाकर सारे समाज में जिस तरह कि अराजकता फैली है उसका खुदा ही मालिक है कहीं भी अमन नहीं है अमन के लिए लोग औरों का चैन छीन रहे हैं , भ्रष्टाचार बाहर से नहीं अन्दर से आया है और उसको हम बढ़ा भी रहे हैं. हदें पार करने के बाद बचता ही क्या है किसके किसके तरह से रास्ता चुनना होगा पता नहीं है . पर हम क्या करेंगे इसका क्या हिसाब है किसके पास है ?
गैर बराबरी की बात करना बेमानी होता जा रहा है , बराबरी के लिए जो मानदंड बनाये जा रहे हैं उनका आधार क्या है यह देखने का नजरिया क्या है , यह सारे ऐसे कारण हैं जिनका स्थापन और उनका मूल्याङ्कन अपने आप में आधार हैं और एसा आधार कहाँ मिलेगा.   

    

सोमवार, 21 मार्च 2011

‘नारीजाति की तरंगे’ शीर्षक से इन दिनों एक चित्र प्रदर्शनी ललित कला अकादमी, रवीन्द्र भवन की कलादीर्घा 7 व 8 में 19 मार्च 2011 तक

आधी आबादी और मेरे चित्र 
डा. लाल रत्नाकर

                  दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया बनती है.
                  यही वह आवादी है जो सदियों से संास्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. कहने को वह आधी आबादी है लेकिन षेश आधी आबादी यानी पुरूशों की दुनिया में उसकी जगह सिर्फ हाशिऐ पर दिखती है जबकि हमारी दुनिया में दुख दर्द से लेकर उत्सव-त्योहार तक हर अवसर पर उसकी उपस्थिति अपरिहार्य दिखती है जहां तक मेरे चित्रों के परिवेश का सवाल है, उनमें गांव इसलिए ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि मैं खुद अपने आप को गांव के नजदीक महशूस करता हूॅं सच कहूॅ तो वही परिवेश मुझे सजीव, सटीक और वास्तविक लगता है. बनावटी और दिखावटी नहीं. 
                 बार-बार लगता है की हम उस आधी आवादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर है.

नारीजाति की तरंगे-

               मेरे चित्रों की ‘नारीजाति की तरंगे’ शीर्षक से इन दिनों एक चित्र प्रदर्शनी ललित कला अकादमी, रवीन्द्र भवन की कलादीर्घा 7 व 8 में 19 मार्च 2011 तक चलेेंगी, प्रदर्शनी प्रातः 11 बजे से सायं 7 बजे तक खुली रहती है। 
               इस चित्र प्रदर्षनी में नारीजाति की तरंगे विषय को केन्द्र में रखकर चित्रों का चयन करके उन्हें प्रदर्शित किया गया है जिनमें भारतीय नारीजाति की विविध आयामी स्वरूपों का दृश्याकंन किया गया है जिनमें-यह दिखाने का प्रयत्न किया गया है जिनमें जिस रूप में स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्शित, प्रभावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है जो पढ़ना बहुत ही सरल होता है. आप मान सकते हैं कि मैं पुरुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता हूं । मैने बेशक स्त्रियों को ही अपने चित्रों में प्रमुख रुप से चित्रित किया है, क्योकि मुझे नारी सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है कहीं कहंी के फुहड़पन को छोड़ दंे तो वे आनन्दित करती आयी हैं जिसे हम बचपन से पढ़ते सुनते और देखते आए हैं यदि हम यह कहें कि नारी या श्रृंगार दोनों में से किसी एक को देखा जाए तो दूसरा स्वतः उपस्थित होता है ऐसे में सृजन की प्रक्रिया वाधित नहीं होती वैसे तो प्रकृति, पशु, पक्षी, पहाड,़ पठार और पुरूश कभी कभार बन ही जाते हैं. परन्तु शीतलता या सुकोमल लता के बदले किसी को चित्रित किया जा सकता है तो वह सम्भवतः नारी ही है.
                 मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं कृश्ण की राधा नहीं है और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं ये स्त्रियां खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली जिन्हें वह अपना राम और कृष्ण समझती हैं लक्ष्मीबाई जैसे नहीं लेकिन अपनी आत्म रक्षा कर लेती हैं वही मुझे प्रेरणा प्रदान करती हैं।
                 मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा उनके लय उनके रस के मायने जानना होगा, उनकी सहजता उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं दो जून रूखा सूखा खाकर तन ढक कर यदि कुछ बचा तो धराउूं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आते हैं वैसे होते नहीं उनका भी मन है मन की गुनगुनाहट है जो रचते है अद्भूद गीत संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे यही प्रयास दिन रात करता रहता हूं. उनके पहनावे उनके आभूषण जिन्हें वह अपने हृदय से लगाये रात दिन ढ़ोती है वह सम्भव है भद्रलोक पसन्द न करता हो और उन्हें गंवार समझता हो लेकिन इस तरह के आभूषण से लदी फदी स्त्रियां उस समाज की भद्र मानी जाती है ये भद्र महिलाएं भी मेरे चित्रों में सुसंगत रूपों में उपस्थित रहती हैं मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं और भी विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा ऐसा भी नहीं मैंने छोटी सी कोशिश भर की है उनको समझने की।
                  जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलतः वह रंगों के प्रति सजग होती है उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है जिन्हे वह सदा वरण करती हैं,मूलतः ये मूल रंग इनके मूल में बसे होतेे हैं यथा लाल पीला नीला बहुत आगे बढ़ी तो हरा बैगनी और नारंगी इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेष सम्प्रेषित करते हैं इन रंगो मे प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं .
                  इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है, उत्सव एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं।
                  आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्रभावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते सरोकारों को स्वीकारे लेकिन निकट भविष्य में मूलतः जो खतरा दिखाई दे रहा है वह यह है कि इस आपाधापी में उसकी अपनी पहचान ही न खो जाए.समकालीन दुनिया के बदलते परिवेष के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृद्ध होता है उसमें आमूल चूल परिवर्तन एक अलग दुनिया रचेगा जिससे सम्भवतः उस परिवेश विशेष की निजता न विलुप्त हो जाए।
                  सहज है वेशकीमती कलाकृतियां समाज या आमजन के लिए सपना ही होंगी मेरा मानना इससे भिन्न है जिस कला को बाजार का संरक्षण मिल रहा है उससे कला उन्नत हो रही है या कलाकार सदियों से हमारी कलायें जगह जगह विखरी पड़ी हैं अब उनका मूल्यांकन हीे भी तो उससे तब के कलाकारों को क्या लाभ. आज भी जिस प्रकार से बाजार कला की करोड़ो रूपये कीमत लगा रहा है बेशक उससे कलाकारों को प्रोत्साहन मिलता है वह उत्साहित होता है लेकिन यह खोज का विषय है कि यह करोड़ो रूपये किन कलाकारों को मिल रहे हैं. कम से कम समाज ने तो इसे सुन सुन कर कलाकार को सम्मान देना आरम्भ कर दिया है कल तक जहां कला को कुछ विशेष प्रकार के लोगों का काम माना जा रहा था आज हर तबके के लोग कलाकार बनने की चाहत रखते हैं इससे कलाकार की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ी है।