गुरुवार, 13 अगस्त 2009

चित्रांकन बी बी सी के लिए






मन्नो का ख़त

से. रा. यात्री




रेखांकन: लाल रत्नाकर

कहानी
उस दिन शिवालिक की पहाड़ियों के आँचल में पहुँचते-पहुँचते साँझ हो गई. मुझे अगले दिन पता चला कि मैं थोड़ा और चल लेता तो मुझे नहर के डाक बंगले में शरण मिल सकती थी. पर तब तक सूरज बिल्कुल डूब गया था और पहाड़ियाँ धुंध के कारण मटमैली दिखाई देने लगी थी.

मैं चिंतित होकर आगे बढ़ रहा था कि अब रात घिरने लगी है आश्रय मिलेगा भी तो कहाँ? तभी एक बूढ़ा एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ में पानी का लोटा थामे गाँव के बाहर जाता दिखाई पड़ा. मैं चुपचाप खड़ा, तमसाकार होती सृष्टि को देखता रहा. बूढ़ा मेरे नज़दीक आया तो ठहरकर मुझे देखने लगा. उसने अपनी मिचमिचाती आँखे झपझपाकर पूछा, ‘‘कौन है भाई?’’

‘‘अजनबी हूँ बाबा.’’

‘‘वो तो समझ गया. कौन जात हो? अपनी जाति तो मैंने बता दी. पर कहाँ का रहने वाला हूँ, यह प्रश्न मैं टाल गया.’’

मैंने पूछा, ‘‘बाबा यहाँ रात को कहीं ठहरने का ठौर मिल सकता है?’’

ठहरने की जगह तो यहाँ कहाँ धरी है पर बेटा एक बात पूछे हूँ,‘‘इस उमर में बैरागी बने क्यों घूम रहे हो? जो उमर खाने, कमाने, घर बसाने की है उसमें भले घर के बालक क्या ऐसे घूमते हैं?’’ फिर ज़रा रुक कर उसने संदेह व्यक्त किया,‘‘लगे है घर से भागे हो. कहीं महतारी तो दूसरी नहीं है?’’

मुझे उस बूढ़े की ममता से एक विचित्र से स्नेह की अनुभूति हुई. मुझे अपनी सफ़ाई में कुछ भी कहना बेमानी लगा. मैं ऐसे एक बूढ़े को जिसकी बरौनियाँ तक सफेद हो चली थीं, क्या समझा पाता कि घूमना-फिरना या यायावरी भी एक काम है.

वह बोला,‘‘मेरे कोठड़े में पड़ रहना और तो अब कहाँ टक्कर मारते फिरोगे.’’


ढिबरी की धुआँ-धुआँ रोशनी में मैने देखा कि उसके पीछे लंबे कद की एक स्वस्थ तरूणी भी थी. वह काले रंग की सूती धोती पहने हुई थी. शायद वह खाना बनाते-बनाते चली आई थी इसलिए चूल्हे की आग की उमस के कारण उसका गौरवर्ण और भी निखर उठा था


मैं अभी आया कहकर बूढ़ा लाठी ठकठकाता आगे बढ़ गया. 15-20 मिनट बाद जब वह हाथ में खाली लोटा लटकाए लौट रहा था तो उसकी लाठी की ठकठक और बढ़ गई थी.

मैं भी उसके संग-संग चल पड़ा. उसने मुझे गाँव के किनारे पर लाकर एक ध्वस्त चबूतरे के नज़दीक ले जाकर खड़ा कर दिया. इसके बाद वह अपने घर गया और बेतरह धुआँ देती एक ढिबरी लेकर लौट आया. उस जीर्ण चबूतरे पर चढ़कर मैंने लक्ष्य किया कि उसके कच्चे कोठड़े में बस दीवारें ही थीं. छत शायद बैठ गई थी. मैंने भीतर जाकर देखा वहाँ एक चारपाई पड़ी थी. ढिबरी एक आले में रखकर वह बोला, ‘‘ यहाँ गरमी लगे तो खाट बाहर चबूतरे से निकाल लेना.’’

मैंने कहा,‘‘कोई ज़रूरत नहीं. मैं यहीं पड़ रहूँगा.’’ यह कहकर मैंने अपना सफ़री थैला चारपाई के सिरहाने टिका दिया. बूढ़ा चला गया तो मैं चारपाई की पाटी पर टिककर कुछ सोचने लगा. तभी वह एक फ़टी दरी और तकिया लेकर आया. मुझे उसके चलने के ढंग से लगा कि बूढ़े को रात के समय कुछ ठीक से सूझता नहीं है.

जब वह चला गया तो मैंने थैले से अपनी लूँगी निकालकर पहन ली और पाजामे को तहाकर तकिए के नीचे रख दिया. तीसरे पहर एक कस्बे से गुजरते हुए जो चना और गुड़ खरीदे थे अभी पोटली निकालने की सोच ही रहा कि वह बूढ़ा हाथ में पानी भरा लोटा लिए आता दिखाई पड़ा. इस बार वह अकेला नहीं था. ढिबरी की धुआँ-धुआँ रोशनी में मैने देखा कि उसके पीछे लंबे कद की एक स्वस्थ तरूणी भी थी. वह काले रंग की सूती धोती पहने हुई थी. शायद वह खाना बनाते-बनाते चली आई थी इसलिए चूल्हे की आग की उमस के कारण उसका गौरवर्ण और भी निखर उठा था.

उन दोनों को देखकर मैं चारपाई से उठकर खड़ा हो गया और आगे बढ़कर बूढ़े के हाथ से पानी का लोटा लेने लगा. तभी मैंने देखा लड़की अपने दोनों हाथों से एक थाली पकड़े हुए थी. लड़की ने उड़ती सी नज़र मुझ पर डाला और आँखे झुका ली. उसके हाथों से थाली लेते हुए मुझे संकोच की अनुभूति हुई. पर थाली उसके हाथ से लेनी ही थी सो मैंने दोनों हाथ आगे बढ़ाकर ले ली और चारपाई के बीचों बीच टिका दी.



रेखांकन - लाल रत्नाकर

उन दोनों के जाने के बाद मैंने उस घिसी हुई पर ढंग से मांजने के कारण चमचमाती थाली में चार रोटियाँ, भाजी और दो हरी मिर्चे रखी देखी. निश्चय ही मुझे खाने की बहुत ज़रूरत महसूस हो रही थी. मैं दबादब चारों रोटियाँ पाँचेक मिनट में ही चट कर गया. वह जब तक दो रोटियाँ और लेकर आई तब मैं पानी का पूरा लोटा पीकर तृप्ति की डकार ले चुका था. थाली मैंने चारपाई के नीचे टिका दी थी.

उसने मेरे चेहरे पर अपनी बड़ी-बड़ी पानीदार आँखे केंद्रित करके पूछा,‘‘बस्स! इतना सा खाते हो?"

"हाँ और क्या? आदमी तो इतना ही खा सकता है."

उसने हल्के से मुस्कराकर कहा,‘‘चार रोटियों से से जादे खाने वाले क्या डंगर होते हैं.’’

मैंने जीभ निकालकर दाँतों से काटी और बोला, "नहीं नहीं. मेरा वह मतलब नहीं था."

उसने झुककर चारपाई के नीचे से खाली लौटे, जूठी थाली निकाली और खाली लोटे को उठाते हुए बोली,‘‘पानी मैं अभी ला रही हूँ.’’

लेकिन पानी का लोटा लड़की लेकर नहीं आई बल्कि बूढ़ा ही लाया. मैंने उसे बैठने को कहा तो वह चारपाई पर टिकते हुए बोला, "तुम्हें सोने की देर हो रही होगी."

नहीं-नहीं आप बैठिए. मैं इतनी जल्दी कहाँ सोता हूँ.

जब वह बैठ गया तो अपने बारे में बतलाने लगा. उसके पास कुल जमा तीन बीघा जोत थी जिसे वह बटाई पर उठा देता था. उसका एक मात्र पुत्र, दूसरी पत्नी का भी देहांत हो जाने पर वैरागी होकर पता नहीं कहाँ चला गया था. उसकी बेटी ही अब बूढे का एक मात्र सहारा थी. बूढा अपने गाँव तथा आसपास के छोटे-छोटे नंगलों और पुरवों में कथा-वार्ता करके कुछ पा जाता था. कुछ बटाइदार से और बाक़ी यजमानी से जो कुछ भी उपलब्ध होता था उसी से दादा-पोती की गुजर हो रही थी. मगर अब उस बूढ़े की सबसे बड़ी चिंता जवान होती पोती के विवाह को लेकर थी.




मैं खिन्नमना उसकी चिंताएँ सुनता रहा और अब उसकी बात भी ठीक से समझ में आ गई जो उसने मुझसे मिलते ही कही थी ‘‘लगे है घर से भागे हो’’ मेरे यों भटकने में उसे कहीं घर छोड़कर भाग जाने वाले अपने बेटे की ही झलक मिली होगी.

अपनी राम कहानी कहकर जब बूढ़ा चला गया तो मैंने अपने थैले से डायरी और कलम निकालकर तकिए पर रख ली. मैं रात को जहाँ भी सोता था सोने से पहले डायरी में एक-दो पृष्ठ अवश्य लिखता था. पर मैं तुरंत कुछ लिख नहीं पाया. मुझे उस जर्जर बूढ़े की डाँवाडोल काया और उसकी जवान होती पोती का ख़्याल आ गया. मैं सोचने लगा मानों अगर साल-छह महीने में बूढे की आँखे बंद हो गई तो उस खिलते हुए यौवन की दशा क्या होगी? कौन देखेगा पितृहीन परिवारहीन उस आश्रयहीन को.

धीरे-धीरे सन्नाटा बढ़ता चला गया. दूर कहीं से एक साथ कई कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें आ रही थीं. पेड़ों पर बसेरा लेने वाले पक्षी भी बीच-बीच में पंख फडफड़ा उठते थे. वह रात की निस्तब्धता में डूबी चुप्पी विचित्र मायावी लोक की सृष्टि कर रही थी.

मैं लगभग गाँव से बाहर एक छतविहीन कोठड़े में बैठा सोच रहा था कि आख़िर मैने ख़ुद यायावरों जीवन क्यों चुना? क्या रात बिरात ऐसी ही बीहड़ परिस्थितियों में भटकने के लिए?

ढिबरी का धुआँ मेरी ओर ही आ रहा था. मैंने उसकी परवाह न करके अपने डायरी खोली और ढिबरी की भुतही रोशनी में लिखने का कर्त्तव्य पूरा करने लगा. अभी मैंने कुछेक पंक्तियाँ ही लिखी होंगी कि वह युवती आती दिखाई पड़ी. वह एक तरह से बदन चुराते हुए मेरे निकट आ रही थी. हालाँकि वहाँ आसपास इस निविर बेला में कोई नहीं था मगर फिर भी...

मेरे नज़दीक आकर उसने लगभग फुसफुसाते हुए पूछा,‘‘किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है.’’

कुछ समय के लिए तो मैं अवाक् बैठा रहा. वह चारपाई के कुछ और निकट आकर मेरी खुली डायरी की ओर संकेत करते हुए बोली बोली, ‘‘क्या लिख रहे हो?’’

मैंने यों ही बात बताने की गरज़ से कहा यही इधर-उधर की बातें. जैसे मैं जहाँ जाता हूँ वहाँ का छोटा-मोटा ब्यौरा.

‘अच्छा’ कहकर वह कुछ क्षण चकित भाव से डायरी देखती रही और बोली, ‘‘क्या इसमें यहाँ की बातें भी हैं, इस कोठड़े और चंडी देवी के मंडप की भी?’’

‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं लिखूँगा. पर यहाँ चंडी मंडप कहाँ है? उसे तो मैंने अभी देखा ही नहीं है.’’

‘‘सुबह देख लेना. बाबा जी कल सतनारायण की कथा करने माजरे जाएँगे-तभी देख आना.’’ एक क्षण ठहरकर उसने एकाएक पूछा,‘‘क्या मेरा एक काम कर दोगे?’’


वह कुछ पल असमंजस में पड़ी सोचती रही और फिर आँखे झुकाकर बोली,‘‘यही लिख दो कि तुम इतने दिन से क्यों नहीं आए?’’


मैं उसके इस औचक प्रश्न के आशय का कोई अनुमान नहीं लगा पाया. मुझे उलझन में पड़ा देखकर वह थोड़े से मुस्कराई और बोली,‘‘कोई ऐसी वैसी बात नहीं है. अब तुम सो जाओ सवेरे बताऊँगी.’’

उसके चले जाने के बाद ही मेरी चेतना में उसके वह वाक्य,‘‘क्या मेरा एक काम कर दोगे.’’ न जाने कितनी देर गूँजता रहा. न फिर मुझे जल्दी नींद ही आई और न मैं डायरी में ही कुछ लिख पाया. ढिबरी बुझाकर मैं उस चिंतन में चारपाई पर पड़े करवटें बदलता रहा.

उस लड़की का दादा तो सुबह जल्दी ही जाग कर के किसी गाँव में कथा कहने चला गया. मैं सुबह उठकर खेतों की ओर निकल गया. लौटते में प्राइमरी मदरसा गाँव के उत्तर खंडरनुमा चंडी देवी का मंडप भी देख आया.

मैंने लौटकर अपनी डायरी खोली और पिछले दिन का विवरण लिखने लगा. कोई दसेक मिनट बीते होंगे कि वह आई और मुझे लिखते देखकर वापस जाने लगी. मैंने उसे बुलाकर कहा,‘‘क्या एक प्याला चाय मिल सकती है?’’

‘‘हाँ चाय तो मैं बना दूंगी पर प्याले घर में नहीं हैं. गिलास-कटोरी में पी लेंगे.’’? क्यों नहीं पी लूँगा. तुम लाकर तो देखो.’’

उसके चेहरे पर स्नेहशीलता भाव उभर आया. जाते-जाते बोली,‘‘दो मिनट में चाय बनाकर लाती हूँ.’’

मैं सिर झुकाकर अपनी बातें और डायरी देखने में जुट गया. वास्तव में वह अपेक्षा से कहीं अधिक जल्दी से वह चाय बनाकर ले आई और गिलास से कटोरी में चाय रखने लगी.

मैंने उसके हाथ से कटोरी लेकर फूक भरते हुए चाय की घूट भरी ही थी कि वह बोल उठी आप शहरी चीनी की चाय पीते होंगे पर घर में तो गुड़ ही था. पता नहीं कैसी बनी होगी. कही काढ़ा तो नहीं बन गई.’’

‘‘अरे नहीं, बहुत ---मीठी और बढ़िया बनी है.’’

‘‘झुट्ठी तारीफ़ क्यूँ करो हो! भला हम गाँव-घसले चाय बनाना क्या जानें. यों तो बब्बा जी भरे जाड़ों में सुबह-साँझ लोटा भर के चाय पीवे हैं. उन्हीं के लिए पूस-माघ के चिल्ला जाड़े में बनानी पड़े है.’’

‘‘कुछ भी कहो तुमने चाय बढ़िया बनाई है.’’ कहकर मैने कटोरी झुककर फर्श पर टिका दी और फिर मैं लग गया.

उसने इधर-उधर की टोह सी लेते हुए थोड़ी देर बाद कहा,‘‘हाँ, एक ख़त लिख दो.’’

‘‘ख़त? पर किसको? एक क्षण रुककर मैंने पूछा,‘‘क्या तुम लिखना नहीं जानती?’’

वह लज्जाकर बोली पर मुझसे लिखना कहाँ आता है. लिखने की कोशिश कई दिन की पर लिखा नहीं बस.

‘‘तब तो लिख दूँगा.’’ मैंने अपने बैग से एक कोड़ा कागज निकालकर कहा,‘‘बोलो किसे क्या लिखना है.’’

वह कुछ पल असमंजस में पड़ी सोचती रही और फिर आँखे झुकाकर बोली,‘‘यही लिख दो कि तुम इतने दिन से क्यों नहीं आए?’’

उनके एक छोटे से वाक्य से मैं हिल उठा और और उलझन में पड़कर पूछ बैठा,‘‘कौन है? कहाँ रहता है? इधर न आने की क्या वजह है?’’

उसके चेहरे पर उदासी का एक बादल तैरता सा दिखा और आँखे उन्मन उदास हो गई.

उसने टुकड़ों में जो कुछ बतलाया उसका सारांश यह था कि वह एक प्राइमरी स्कूल का अध्यापक था जो पहले इसी गाँव के प्राइमरी मदरसे में तैनात था और जब इस कोठड़े की छत सही सलामत थी तो इसी में रहता था. बाद में कहीं तबादला होकर चला गया था. जाने के बाद गाँव में कभी बस एक बार इधर आया था.

मैंने उससे पूछा,‘‘क्या तुम्हारे पास उसका कोई पता ठिकाना है?’’

मेरे यह कहते ही मेरी ओर से पीठ फेर ली और अपने अंत:वस्त्रों से एक कई तहों में मुड़ातुड़ा कागज़ निकालकर मेरी ओर बढ़ा दिया. उस कागज़ को मैंने अतिरिक्त सावधानी से खोला, उस पर एक नाम और किसी गाँव का पता दर्ज़ था मगर कागज़ तुड़मुड़कर और चिकनाई के धब्बों से खस्ता हो चला था.

मैंने कागज़ पर लिखे पते को अपनी डायरी में उतारा और कागज़ उसे वापस कर दिया. वह खाली कटोरा और गलास ले जाते हुए बोली, ‘‘आप लिखो मैं आपके लिए नाश्ता बनाती हूँ.’’

वह चली गई तो गहरा भावावेश अनुभव करते हुए मैंने एक काव्यात्मक पत्र लिखा. पहली वार जीवन से एक प्रेमिका के उदगारों को व्यक्त करने में मेरी सारी चेतना और संवेदना कितनी सफल हो पाई यह तो मैं नहीं बतला सकता पर मैं कुछ समय के लिए दिशा और कालबोध से परे हो ही गया.

वह आई और मुझे लिखते देखकर कुछ बोलने लगी. मैंने उसे रोका और अपना लिखा हुआ मजमून उसे देते हुए बोला, "अब तुम अपने लेखन में इस पत्र को लिखो और बाद में अपना नाम भी लिख दो. उसे यह नहीं लगना चाहिए कि इस ख़त को लिखने वाला कोई और है." साथ ही मैंने उसे एक कोरा कागज़ और कलम भी उसे दे दिया.




कोई पौन घंटे बाद वह मेरे लिखे हुए पत्र की अपने हाथ से लिखी हुई नकल लेकर आई. उसने टेढ़े मेढे अक्षरों में भरसक सावधानी बरतते हुए पूरे पत्र को मेरे दिए हुए कोरे कागज़ पर उतारा और अंत में 'आपकी अभागी मन्नो' टीप दिया था.

मैं उसका यह ‘अभागी मन्नो’ मुझे भीतर तक हिला गया और मैं अपने ही लिखे पत्र के दारुण वियोग से दहल उठा. मुझे लगा परकाया प्रवेश भी सुरक्षित नहीं है. कभी-कभी वह भी भीतर तक तोड़ डालता है. उस पर गज़ब वह भी था कि वह पत्र पढ़ते हुए वह रोई भी ज़रुर होगी क्योंकि पत्र पर आँसू के निशान मौजूद थे और उसकी आँखे गुड़हल के फूल की तरह लग रही थीं.

अनायास मेरे मुँह से एक लंबी साँस निकल गई और मैंने फैसला किया कि मुझे वहाँ से तुरंत चल देना चाहिए.

मैंने कहा,‘‘मन्नो अब मुझे जाना चाहिए.’’ एक पल बाद ही सहसा मेरे मुँह से एक असत्य उच्चारण हुआ, "मुझे आगे काफी काम है.’’

‘‘ये क्या? बाबा जी से मिले बिना ही कैसे चले जाओगे? अभी तो आपने कुछ खाया भी नहीं है. जितनी देर में बाबा जी आवें आप मंदिर की तरफ घूम आओ. हमारे गाँव की चंडी देवी बड़ी मानता वाली हैं. मन की सारी मुराद पूरी हो जाएँगी. दशहरे पर तीन दिन का बड़ा मेला लगता है. जाने कहाँ-कहाँ से दुनिया मनौती मानने आती हैं.’’

‘मुराद’ और 'मनौती' के शब्द मेरी चेतना में तैरने लगे.

मुझे लगा मन्नो का ठहरने का अनुरोध कहीं मेरे लिए बेड़ी न बन जाए. इस बैरागी मन को ठाँव कहाँ?

मैंने उसका कोई आग्रह नहीं माना. एकदम से थैला उठाकर चल पड़ा और चलते-चलते बोला, "मैं तुम्हारा ख़त किसी शहर से पोस्ट कर दूँगा."

‘‘नहीं रुकोगे? बाबा जी दुखी होंगे. कुछ खाया भी नहीं.

‘‘मैं कभी आऊँगा तो रुकूँगा और खाऊँगा भी. उसने चबूतरे, पर खड़े होकर मनुहार से कहा,‘‘ज़रूर आना.’’

उसके शब्दों के अतिशय अनुरोध ने मेरे अस्तित्व को मानों अथाह स्नेह से दुलरा दिया है. कोमल स्पर्श की ममतामई छवि को आँखों ही आँखों में बसाए मैं बरबस आगे बढ़ता चला गया.

उदासी के सैलाब में डूबे उसके चेहरे को मुड़कर देखने का साहस मैं खो चुका था.

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से. रा. यात्री
एफ-1/ ई, नया कविनगर
गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश

चित्रांकन बी बी सी के लिए


र मारते फिरोगे.’’


ढिबरी की धुआँ-धुआँ रोशनी में मैने देखा कि उसके पीछे लंबे कद की एक स्वस्थ तरूणी भी थी. वह काले रंग की सूती धोती पहने हुई थी. शायद वह खाना बनाते-बनाते चली आई थी इसलिए चूल्हे की आग की उमस के कारण उसका गौरवर्ण और भी निखर उठा था


मैं अभी आया कहकर बूढ़ा लाठी ठकठकाता आगे बढ़ गया. 15-20 मिनट बाद जब वह हाथ में खाली लोटा लटकाए लौट रहा था तो उसकी लाठी की ठकठक और बढ़ गई थी.

मैं भी उसके संग-संग चल पड़ा. उसने मुझे गाँव के किनारे पर लाकर एक ध्वस्त चबूतरे के नज़दीक ले जाकर खड़ा कर दिया. इसके बाद वह अपने घर गया और बेतरह धुआँ देती एक ढिबरी लेकर लौट आया. उस जीर्ण चबूतरे पर चढ़कर मैंने लक्ष्य किया कि उसके कच्चे कोठड़े में बस दीवारें ही थीं. छत शायद बैठ गई थी. मैंने भीतर जाकर देखा वहाँ एक चारपाई पड़ी थी. ढिबरी एक आले में रखकर वह बोला, ‘‘ यहाँ गरमी लगे तो खाट बाहर चबूतरे से निकाल लेना.’’

मैंने कहा,‘‘कोई ज़रूरत नहीं. मैं यहीं पड़ रहूँगा.’’ यह कहकर मैंने अपना सफ़री थैला चारपाई के सिरहाने टिका दिया. बूढ़ा चला गया तो मैं चारपाई की पाटी पर टिककर कुछ सोचने लगा. तभी वह एक फ़टी दरी और तकिया लेकर आया. मुझे उसके चलने के ढंग से लगा कि बूढ़े को रात के समय कुछ ठीक से सूझता नहीं है.

जब वह चला गया तो मैंने थैले से अपनी लूँगी निकालकर पहन ली और पाजामे को तहाकर तकिए के नीचे रख दिया. तीसरे पहर एक कस्बे से गुजरते हुए जो चना और गुड़ खरीदे थे अभी पोटली निकालने की सोच ही रहा कि वह बूढ़ा हाथ में पानी भरा लोटा लिए आता दिखाई पड़ा. इस बार वह अकेला नहीं था. ढिबरी की धुआँ-धुआँ रोशनी में मैने देखा कि उसके पीछे लंबे कद की एक स्वस्थ तरूणी भी थी. वह काले रंग की सूती धोती पहने हुई थी. शायद वह खाना बनाते-बनाते चली आई थी इसलिए चूल्हे की आग की उमस के कारण उसका गौरवर्ण और भी निखर उठा था.

उन दोनों को देखकर मैं चारपाई से उठकर खड़ा हो गया और आगे बढ़कर बूढ़े के हाथ से पानी का लोटा लेने लगा. तभी मैंने देखा लड़की अपने दोनों हाथों से एक थाली पकड़े हुए थी. लड़की ने उड़ती सी नज़र मुझ पर डाला और आँखे झुका ली. उसके हाथों से थाली लेते हुए मुझे संकोच की अनुभूति हुई. पर थाली उसके हाथ से लेनी ही थी सो मैंने दोनों हाथ आगे बढ़ाकर ले ली और चारपाई के बीचों बीच टिका दी.



रेखांकन - लाल रत्नाकर

उन दोनों के जाने के बाद मैंने उस घिसी हुई पर ढंग से मांजने के कारण चमचमाती थाली में चार रोटियाँ, भाजी और दो हरी मिर्चे रखी देखी. निश्चय ही मुझे खाने की बहुत ज़रूरत महसूस हो रही थी. मैं दबादब चारों रोटियाँ पाँचेक मिनट में ही चट कर गया. वह जब तक दो रोटियाँ और लेकर आई तब मैं पानी का पूरा लोटा पीकर तृप्ति की डकार ले चुका था. थाली मैंने चारपाई के नीचे टिका दी थी.

उसने मेरे चेहरे पर अपनी बड़ी-बड़ी पानीदार आँखे केंद्रित करके पूछा,‘‘बस्स! इतना सा खाते हो?"

"हाँ और क्या? आदमी तो इतना ही खा सकता है."

उसने हल्के से मुस्कराकर कहा,‘‘चार रोटियों से से जादे खाने वाले क्या डंगर होते हैं.’’

मैंने जीभ निकालकर दाँतों से काटी और बोला, "नहीं नहीं. मेरा वह मतलब नहीं था."

उसने झुककर चारपाई के नीचे से खाली लौटे, जूठी थाली निकाली और खाली लोटे को उठाते हुए बोली,‘‘पानी मैं अभी ला रही हूँ.’’

लेकिन पानी का लोटा लड़की लेकर नहीं आई बल्कि बूढ़ा ही लाया. मैंने उसे बैठने को कहा तो वह चारपाई पर टिकते हुए बोला, "तुम्हें सोने की देर हो रही होगी."

नहीं-नहीं आप बैठिए. मैं इतनी जल्दी कहाँ सोता हूँ.

जब वह बैठ गया तो अपने बारे में बतलाने लगा. उसके पास कुल जमा तीन बीघा जोत थी जिसे वह बटाई पर उठा देता था. उसका एक मात्र पुत्र, दूसरी पत्नी का भी देहांत हो जाने पर वैरागी होकर पता नहीं कहाँ चला गया था. उसकी बेटी ही अब बूढे का एक मात्र सहारा थी. बूढा अपने गाँव तथा आसपास के छोटे-छोटे नंगलों और पुरवों में कथा-वार्ता करके कुछ पा जाता था. कुछ बटाइदार से और बाक़ी यजमानी से जो कुछ भी उपलब्ध होता था उसी से दादा-पोती की गुजर हो रही थी. मगर अब उस बूढ़े की सबसे बड़ी चिंता जवान होती पोती के विवाह को लेकर थी.




मैं खिन्नमना उसकी चिंताएँ सुनता रहा और अब उसकी बात भी ठीक से समझ में आ गई जो उसने मुझसे मिलते ही कही थी ‘‘लगे है घर से भागे हो’’ मेरे यों भटकने में उसे कहीं घर छोड़कर भाग जाने वाले अपने बेटे की ही झलक मिली होगी.

अपनी राम कहानी कहकर जब बूढ़ा चला गया तो मैंने अपने थैले से डायरी और कलम निकालकर तकिए पर रख ली. मैं रात को जहाँ भी सोता था सोने से पहले डायरी में एक-दो पृष्ठ अवश्य लिखता था. पर मैं तुरंत कुछ लिख नहीं पाया. मुझे उस जर्जर बूढ़े की डाँवाडोल काया और उसकी जवान होती पोती का ख़्याल आ गया. मैं सोचने लगा मानों अगर साल-छह महीने में बूढे की आँखे बंद हो गई तो उस खिलते हुए यौवन की दशा क्या होगी? कौन देखेगा पितृहीन परिवारहीन उस आश्रयहीन को.

धीरे-धीरे सन्नाटा बढ़ता चला गया. दूर कहीं से एक साथ कई कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें आ रही थीं. पेड़ों पर बसेरा लेने वाले पक्षी भी बीच-बीच में पंख फडफड़ा उठते थे. वह रात की निस्तब्धता में डूबी चुप्पी विचित्र मायावी लोक की सृष्टि कर रही थी.

मैं लगभग गाँव से बाहर एक छतविहीन कोठड़े में बैठा सोच रहा था कि आख़िर मैने ख़ुद यायावरों जीवन क्यों चुना? क्या रात बिरात ऐसी ही बीहड़ परिस्थितियों में भटकने के लिए?

ढिबरी का धुआँ मेरी ओर ही आ रहा था. मैंने उसकी परवाह न करके अपने डायरी खोली और ढिबरी की भुतही रोशनी में लिखने का कर्त्तव्य पूरा करने लगा. अभी मैंने कुछेक पंक्तियाँ ही लिखी होंगी कि वह युवती आती दिखाई पड़ी. वह एक तरह से बदन चुराते हुए मेरे निकट आ रही थी. हालाँकि वहाँ आसपास इस निविर बेला में कोई नहीं था मगर फिर भी...

मेरे नज़दीक आकर उसने लगभग फुसफुसाते हुए पूछा,‘‘किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है.’’

कुछ समय के लिए तो मैं अवाक् बैठा रहा. वह चारपाई के कुछ और निकट आकर मेरी खुली डायरी की ओर संकेत करते हुए बोली बोली, ‘‘क्या लिख रहे हो?’’

मैंने यों ही बात बताने की गरज़ से कहा यही इधर-उधर की बातें. जैसे मैं जहाँ जाता हूँ वहाँ का छोटा-मोटा ब्यौरा.

‘अच्छा’ कहकर वह कुछ क्षण चकित भाव से डायरी देखती रही और बोली, ‘‘क्या इसमें यहाँ की बातें भी हैं, इस कोठड़े और चंडी देवी के मंडप की भी?’’

‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं लिखूँगा. पर यहाँ चंडी मंडप कहाँ है? उसे तो मैंने अभी देखा ही नहीं है.’’

‘‘सुबह देख लेना. बाबा जी कल सतनारायण की कथा करने माजरे जाएँगे-तभी देख आना.’’ एक क्षण ठहरकर उसने एकाएक पूछा,‘‘क्या मेरा एक काम कर दोगे?’’


वह कुछ पल असमंजस में पड़ी सोचती रही और फिर आँखे झुकाकर बोली,‘‘यही लिख दो कि तुम इतने दिन से क्यों नहीं आए?’’


मैं उसके इस औचक प्रश्न के आशय का कोई अनुमान नहीं लगा पाया. मुझे उलझन में पड़ा देखकर वह थोड़े से मुस्कराई और बोली,‘‘कोई ऐसी वैसी बात नहीं है. अब तुम सो जाओ सवेरे बताऊँगी.’’

उसके चले जाने के बाद ही मेरी चेतना में उसके वह वाक्य,‘‘क्या मेरा एक काम कर दोगे.’’ न जाने कितनी देर गूँजता रहा. न फिर मुझे जल्दी नींद ही आई और न मैं डायरी में ही कुछ लिख पाया. ढिबरी बुझाकर मैं उस चिंतन में चारपाई पर पड़े करवटें बदलता रहा.

उस लड़की का दादा तो सुबह जल्दी ही जाग कर के किसी गाँव में कथा कहने चला गया. मैं सुबह उठकर खेतों की ओर निकल गया. लौटते में प्राइमरी मदरसा गाँव के उत्तर खंडरनुमा चंडी देवी का मंडप भी देख आया.

मैंने लौटकर अपनी डायरी खोली और पिछले दिन का विवरण लिखने लगा. कोई दसेक मिनट बीते होंगे कि वह आई और मुझे लिखते देखकर वापस जाने लगी. मैंने उसे बुलाकर कहा,‘‘क्या एक प्याला चाय मिल सकती है?’’

‘‘हाँ चाय तो मैं बना दूंगी पर प्याले घर में नहीं हैं. गिलास-कटोरी में पी लेंगे.’’? क्यों नहीं पी लूँगा. तुम लाकर तो देखो.’’

उसके चेहरे पर स्नेहशीलता भाव उभर आया. जाते-जाते बोली,‘‘दो मिनट में चाय बनाकर लाती हूँ.’’

मैं सिर झुकाकर अपनी बातें और डायरी देखने में जुट गया. वास्तव में वह अपेक्षा से कहीं अधिक जल्दी से वह चाय बनाकर ले आई और गिलास से कटोरी में चाय रखने लगी.

मैंने उसके हाथ से कटोरी लेकर फूक भरते हुए चाय की घूट भरी ही थी कि वह बोल उठी आप शहरी चीनी की चाय पीते होंगे पर घर में तो गुड़ ही था. पता नहीं कैसी बनी होगी. कही काढ़ा तो नहीं बन गई.’’

‘‘अरे नहीं, बहुत ---मीठी और बढ़िया बनी है.’’

‘‘झुट्ठी तारीफ़ क्यूँ करो हो! भला हम गाँव-घसले चाय बनाना क्या जानें. यों तो बब्बा जी भरे जाड़ों में सुबह-साँझ लोटा भर के चाय पीवे हैं. उन्हीं के लिए पूस-माघ के चिल्ला जाड़े में बनानी पड़े है.’’

‘‘कुछ भी कहो तुमने चाय बढ़िया बनाई है.’’ कहकर मैने कटोरी झुककर फर्श पर टिका दी और फिर मैं लग गया.

उसने इधर-उधर की टोह सी लेते हुए थोड़ी देर बाद कहा,‘‘हाँ, एक ख़त लिख दो.’’

‘‘ख़त? पर किसको? एक क्षण रुककर मैंने पूछा,‘‘क्या तुम लिखना नहीं जानती?’’

वह लज्जाकर बोली पर मुझसे लिखना कहाँ आता है. लिखने की कोशिश कई दिन की पर लिखा नहीं बस.

‘‘तब तो लिख दूँगा.’’ मैंने अपने बैग से एक कोड़ा कागज निकालकर कहा,‘‘बोलो किसे क्या लिखना है.’’

वह कुछ पल असमंजस में पड़ी सोचती रही और फिर आँखे झुकाकर बोली,‘‘यही लिख दो कि तुम इतने दिन से क्यों नहीं आए?’’

उनके एक छोटे से वाक्य से मैं हिल उठा और और उलझन में पड़कर पूछ बैठा,‘‘कौन है? कहाँ रहता है? इधर न आने की क्या वजह है?’’

उसके चेहरे पर उदासी का एक बादल तैरता सा दिखा और आँखे उन्मन उदास हो गई.

उसने टुकड़ों में जो कुछ बतलाया उसका सारांश यह था कि वह एक प्राइमरी स्कूल का अध्यापक था जो पहले इसी गाँव के प्राइमरी मदरसे में तैनात था और जब इस कोठड़े की छत सही सलामत थी तो इसी में रहता था. बाद में कहीं तबादला होकर चला गया था. जाने के बाद गाँव में कभी बस एक बार इधर आया था.

मैंने उससे पूछा,‘‘क्या तुम्हारे पास उसका कोई पता ठिकाना है?’’

मेरे यह कहते ही मेरी ओर से पीठ फेर ली और अपने अंत:वस्त्रों से एक कई तहों में मुड़ातुड़ा कागज़ निकालकर मेरी ओर बढ़ा दिया. उस कागज़ को मैंने अतिरिक्त सावधानी से खोला, उस पर एक नाम और किसी गाँव का पता दर्ज़ था मगर कागज़ तुड़मुड़कर और चिकनाई के धब्बों से खस्ता हो चला था.

मैंने कागज़ पर लिखे पते को अपनी डायरी में उतारा और कागज़ उसे वापस कर दिया. वह खाली कटोरा और गलास ले जाते हुए बोली, ‘‘आप लिखो मैं आपके लिए नाश्ता बनाती हूँ.’’

वह चली गई तो गहरा भावावेश अनुभव करते हुए मैंने एक काव्यात्मक पत्र लिखा. पहली वार जीवन से एक प्रेमिका के उदगारों को व्यक्त करने में मेरी सारी चेतना और संवेदना कितनी सफल हो पाई यह तो मैं नहीं बतला सकता पर मैं कुछ समय के लिए दिशा और कालबोध से परे हो ही गया.

वह आई और मुझे लिखते देखकर कुछ बोलने लगी. मैंने उसे रोका और अपना लिखा हुआ मजमून उसे देते हुए बोला, "अब तुम अपने लेखन में इस पत्र को लिखो और बाद में अपना नाम भी लिख दो. उसे यह नहीं लगना चाहिए कि इस ख़त को लिखने वाला कोई और है." साथ ही मैंने उसे एक कोरा कागज़ और कलम भी उसे दे दिया.




कोई पौन घंटे बाद वह मेरे लिखे हुए पत्र की अपने हाथ से लिखी हुई नकल लेकर आई. उसने टेढ़े मेढे अक्षरों में भरसक सावधानी बरतते हुए पूरे पत्र को मेरे दिए हुए कोरे कागज़ पर उतारा और अंत में 'आपकी अभागी मन्नो' टीप दिया था.

मैं उसका यह ‘अभागी मन्नो’ मुझे भीतर तक हिला गया और मैं अपने ही लिखे पत्र के दारुण वियोग से दहल उठा. मुझे लगा परकाया प्रवेश भी सुरक्षित नहीं है. कभी-कभी वह भी भीतर तक तोड़ डालता है. उस पर गज़ब वह भी था कि वह पत्र पढ़ते हुए वह रोई भी ज़रुर होगी क्योंकि पत्र पर आँसू के निशान मौजूद थे और उसकी आँखे गुड़हल के फूल की तरह लग रही थीं.

अनायास मेरे मुँह से एक लंबी साँस निकल गई और मैंने फैसला किया कि मुझे वहाँ से तुरंत चल देना चाहिए.

मैंने कहा,‘‘मन्नो अब मुझे जाना चाहिए.’’ एक पल बाद ही सहसा मेरे मुँह से एक असत्य उच्चारण हुआ, "मुझे आगे काफी काम है.’’

‘‘ये क्या? बाबा जी से मिले बिना ही कैसे चले जाओगे? अभी तो आपने कुछ खाया भी नहीं है. जितनी देर में बाबा जी आवें आप मंदिर की तरफ घूम आओ. हमारे गाँव की चंडी देवी बड़ी मानता वाली हैं. मन की सारी मुराद पूरी हो जाएँगी. दशहरे पर तीन दिन का बड़ा मेला लगता है. जाने कहाँ-कहाँ से दुनिया मनौती मानने आती हैं.’’

‘मुराद’ और 'मनौती' के शब्द मेरी चेतना में तैरने लगे.

मुझे लगा मन्नो का ठहरने का अनुरोध कहीं मेरे लिए बेड़ी न बन जाए. इस बैरागी मन को ठाँव कहाँ?

मैंने उसका कोई आग्रह नहीं माना. एकदम से थैला उठाकर चल पड़ा और चलते-चलते बोला, "मैं तुम्हारा ख़त किसी शहर से पोस्ट कर दूँगा."

‘‘नहीं रुकोगे? बाबा जी दुखी होंगे. कुछ खाया भी नहीं.

‘‘मैं कभी आऊँगा तो रुकूँगा और खाऊँगा भी. उसने चबूतरे, पर खड़े होकर मनुहार से कहा,‘‘ज़रूर आना.’’

उसके शब्दों के अतिशय अनुरोध ने मेरे अस्तित्व को मानों अथाह स्नेह से दुलरा दिया है. कोमल स्पर्श की ममतामई छवि को आँखों ही आँखों में बसाए मैं बरबस आगे बढ़ता चला गया.

उदासी के सैलाब में डूबे उसके चेहरे को मुड़कर देखने का साहस मैं खो चुका था.

********************************************
से. रा. यात्री
एफ-1/ ई, नया कविनगर
गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश



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शुक्रवार, 15 दिसंबर, 2006 को 10:16 GMT तक के समाचार



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मन्नो का ख़त

से. रा. यात्री




रेखांकन: लाल रत्नाकर

कहानी
उस दिन शिवालिक की पहाड़ियों के आँचल में पहुँचते-पहुँचते साँझ हो गई. मुझे अगले दिन पता चला कि मैं थोड़ा और चल लेता तो मुझे नहर के डाक बंगले में शरण मिल सकती थी. पर तब तक सूरज बिल्कुल डूब गया था और पहाड़ियाँ धुंध के कारण मटमैली दिखाई देने लगी थी.

मैं चिंतित होकर आगे बढ़ रहा था कि अब रात घिरने लगी है आश्रय मिलेगा भी तो कहाँ? तभी एक बूढ़ा एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ में पानी का लोटा थामे गाँव के बाहर जाता दिखाई पड़ा. मैं चुपचाप खड़ा, तमसाकार होती सृष्टि को देखता रहा. बूढ़ा मेरे नज़दीक आया तो ठहरकर मुझे देखने लगा. उसने अपनी मिचमिचाती आँखे झपझपाकर पूछा, ‘‘कौन है भाई?’’

‘‘अजनबी हूँ बाबा.’’

‘‘वो तो समझ गया. कौन जात हो? अपनी जाति तो मैंने बता दी. पर कहाँ का रहने वाला हूँ, यह प्रश्न मैं टाल गया.’’

मैंने पूछा, ‘‘बाबा यहाँ रात को कहीं ठहरने का ठौर मिल सकता है?’’

ठहरने की जगह तो यहाँ कहाँ धरी है पर बेटा एक बात पूछे हूँ,‘‘इस उमर में बैरागी बने क्यों घूम रहे हो? जो उमर खाने, कमाने, घर बसाने की है उसमें भले घर के बालक क्या ऐसे घूमते हैं?’’ फिर ज़रा रुक कर उसने संदेह व्यक्त किया,‘‘लगे है घर से भागे हो. कहीं महतारी तो दूसरी नहीं है?’’

मुझे उस बूढ़े की ममता से एक विचित्र से स्नेह की अनुभूति हुई. मुझे अपनी सफ़ाई में कुछ भी कहना बेमानी लगा. मैं ऐसे एक बूढ़े को जिसकी बरौनियाँ तक सफेद हो चली थीं, क्या समझा पाता कि घूमना-फिरना या यायावरी भी एक काम है.

वह बोला,‘‘मेरे कोठड़े में पड़ रहना और तो अब कहाँ टक्कर मारते फिरोगे.’’


ढिबरी की धुआँ-धुआँ रोशनी में मैने देखा कि उसके पीछे लंबे कद की एक स्वस्थ तरूणी भी थी. वह काले रंग की सूती धोती पहने हुई थी. शायद वह खाना बनाते-बनाते चली आई थी इसलिए चूल्हे की आग की उमस के कारण उसका गौरवर्ण और भी निखर उठा था


मैं अभी आया कहकर बूढ़ा लाठी ठकठकाता आगे बढ़ गया. 15-20 मिनट बाद जब वह हाथ में खाली लोटा लटकाए लौट रहा था तो उसकी लाठी की ठकठक और बढ़ गई थी.

मैं भी उसके संग-संग चल पड़ा. उसने मुझे गाँव के किनारे पर लाकर एक ध्वस्त चबूतरे के नज़दीक ले जाकर खड़ा कर दिया. इसके बाद वह अपने घर गया और बेतरह धुआँ देती एक ढिबरी लेकर लौट आया. उस जीर्ण चबूतरे पर चढ़कर मैंने लक्ष्य किया कि उसके कच्चे कोठड़े में बस दीवारें ही थीं. छत शायद बैठ गई थी. मैंने भीतर जाकर देखा वहाँ एक चारपाई पड़ी थी. ढिबरी एक आले में रखकर वह बोला, ‘‘ यहाँ गरमी लगे तो खाट बाहर चबूतरे से निकाल लेना.’’

मैंने कहा,‘‘कोई ज़रूरत नहीं. मैं यहीं पड़ रहूँगा.’’ यह कहकर मैंने अपना सफ़री थैला चारपाई के सिरहाने टिका दिया. बूढ़ा चला गया तो मैं चारपाई की पाटी पर टिककर कुछ सोचने लगा. तभी वह एक फ़टी दरी और तकिया लेकर आया. मुझे उसके चलने के ढंग से लगा कि बूढ़े को रात के समय कुछ ठीक से सूझता नहीं है.

जब वह चला गया तो मैंने थैले से अपनी लूँगी निकालकर पहन ली और पाजामे को तहाकर तकिए के नीचे रख दिया. तीसरे पहर एक कस्बे से गुजरते हुए जो चना और गुड़ खरीदे थे अभी पोटली निकालने की सोच ही रहा कि वह बूढ़ा हाथ में पानी भरा लोटा लिए आता दिखाई पड़ा. इस बार वह अकेला नहीं था. ढिबरी की धुआँ-धुआँ रोशनी में मैने देखा कि उसके पीछे लंबे कद की एक स्वस्थ तरूणी भी थी. वह काले रंग की सूती धोती पहने हुई थी. शायद वह खाना बनाते-बनाते चली आई थी इसलिए चूल्हे की आग की उमस के कारण उसका गौरवर्ण और भी निखर उठा था.

उन दोनों को देखकर मैं चारपाई से उठकर खड़ा हो गया और आगे बढ़कर बूढ़े के हाथ से पानी का लोटा लेने लगा. तभी मैंने देखा लड़की अपने दोनों हाथों से एक थाली पकड़े हुए थी. लड़की ने उड़ती सी नज़र मुझ पर डाला और आँखे झुका ली. उसके हाथों से थाली लेते हुए मुझे संकोच की अनुभूति हुई. पर थाली उसके हाथ से लेनी ही थी सो मैंने दोनों हाथ आगे बढ़ाकर ले ली और चारपाई के बीचों बीच टिका दी.



रेखांकन - लाल रत्नाकर

उन दोनों के जाने के बाद मैंने उस घिसी हुई पर ढंग से मांजने के कारण चमचमाती थाली में चार रोटियाँ, भाजी और दो हरी मिर्चे रखी देखी. निश्चय ही मुझे खाने की बहुत ज़रूरत महसूस हो रही थी. मैं दबादब चारों रोटियाँ पाँचेक मिनट में ही चट कर गया. वह जब तक दो रोटियाँ और लेकर आई तब मैं पानी का पूरा लोटा पीकर तृप्ति की डकार ले चुका था. थाली मैंने चारपाई के नीचे टिका दी थी.

उसने मेरे चेहरे पर अपनी बड़ी-बड़ी पानीदार आँखे केंद्रित करके पूछा,‘‘बस्स! इतना सा खाते हो?"

"हाँ और क्या? आदमी तो इतना ही खा सकता है."

उसने हल्के से मुस्कराकर कहा,‘‘चार रोटियों से से जादे खाने वाले क्या डंगर होते हैं.’’

मैंने जीभ निकालकर दाँतों से काटी और बोला, "नहीं नहीं. मेरा वह मतलब नहीं था."

उसने झुककर चारपाई के नीचे से खाली लौटे, जूठी थाली निकाली और खाली लोटे को उठाते हुए बोली,‘‘पानी मैं अभी ला रही हूँ.’’

लेकिन पानी का लोटा लड़की लेकर नहीं आई बल्कि बूढ़ा ही लाया. मैंने उसे बैठने को कहा तो वह चारपाई पर टिकते हुए बोला, "तुम्हें सोने की देर हो रही होगी."

नहीं-नहीं आप बैठिए. मैं इतनी जल्दी कहाँ सोता हूँ.

जब वह बैठ गया तो अपने बारे में बतलाने लगा. उसके पास कुल जमा तीन बीघा जोत थी जिसे वह बटाई पर उठा देता था. उसका एक मात्र पुत्र, दूसरी पत्नी का भी देहांत हो जाने पर वैरागी होकर पता नहीं कहाँ चला गया था. उसकी बेटी ही अब बूढे का एक मात्र सहारा थी. बूढा अपने गाँव तथा आसपास के छोटे-छोटे नंगलों और पुरवों में कथा-वार्ता करके कुछ पा जाता था. कुछ बटाइदार से और बाक़ी यजमानी से जो कुछ भी उपलब्ध होता था उसी से दादा-पोती की गुजर हो रही थी. मगर अब उस बूढ़े की सबसे बड़ी चिंता जवान होती पोती के विवाह को लेकर थी.




मैं खिन्नमना उसकी चिंताएँ सुनता रहा और अब उसकी बात भी ठीक से समझ में आ गई जो उसने मुझसे मिलते ही कही थी ‘‘लगे है घर से भागे हो’’ मेरे यों भटकने में उसे कहीं घर छोड़कर भाग जाने वाले अपने बेटे की ही झलक मिली होगी.

अपनी राम कहानी कहकर जब बूढ़ा चला गया तो मैंने अपने थैले से डायरी और कलम निकालकर तकिए पर रख ली. मैं रात को जहाँ भी सोता था सोने से पहले डायरी में एक-दो पृष्ठ अवश्य लिखता था. पर मैं तुरंत कुछ लिख नहीं पाया. मुझे उस जर्जर बूढ़े की डाँवाडोल काया और उसकी जवान होती पोती का ख़्याल आ गया. मैं सोचने लगा मानों अगर साल-छह महीने में बूढे की आँखे बंद हो गई तो उस खिलते हुए यौवन की दशा क्या होगी? कौन देखेगा पितृहीन परिवारहीन उस आश्रयहीन को.

धीरे-धीरे सन्नाटा बढ़ता चला गया. दूर कहीं से एक साथ कई कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें आ रही थीं. पेड़ों पर बसेरा लेने वाले पक्षी भी बीच-बीच में पंख फडफड़ा उठते थे. वह रात की निस्तब्धता में डूबी चुप्पी विचित्र मायावी लोक की सृष्टि कर रही थी.

मैं लगभग गाँव से बाहर एक छतविहीन कोठड़े में बैठा सोच रहा था कि आख़िर मैने ख़ुद यायावरों जीवन क्यों चुना? क्या रात बिरात ऐसी ही बीहड़ परिस्थितियों में भटकने के लिए?

ढिबरी का धुआँ मेरी ओर ही आ रहा था. मैंने उसकी परवाह न करके अपने डायरी खोली और ढिबरी की भुतही रोशनी में लिखने का कर्त्तव्य पूरा करने लगा. अभी मैंने कुछेक पंक्तियाँ ही लिखी होंगी कि वह युवती आती दिखाई पड़ी. वह एक तरह से बदन चुराते हुए मेरे निकट आ रही थी. हालाँकि वहाँ आसपास इस निविर बेला में कोई नहीं था मगर फिर भी...

मेरे नज़दीक आकर उसने लगभग फुसफुसाते हुए पूछा,‘‘किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है.’’

कुछ समय के लिए तो मैं अवाक् बैठा रहा. वह चारपाई के कुछ और निकट आकर मेरी खुली डायरी की ओर संकेत करते हुए बोली बोली, ‘‘क्या लिख रहे हो?’’

मैंने यों ही बात बताने की गरज़ से कहा यही इधर-उधर की बातें. जैसे मैं जहाँ जाता हूँ वहाँ का छोटा-मोटा ब्यौरा.

‘अच्छा’ कहकर वह कुछ क्षण चकित भाव से डायरी देखती रही और बोली, ‘‘क्या इसमें यहाँ की बातें भी हैं, इस कोठड़े और चंडी देवी के मंडप की भी?’’

‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं लिखूँगा. पर यहाँ चंडी मंडप कहाँ है? उसे तो मैंने अभी देखा ही नहीं है.’’

‘‘सुबह देख लेना. बाबा जी कल सतनारायण की कथा करने माजरे जाएँगे-तभी देख आना.’’ एक क्षण ठहरकर उसने एकाएक पूछा,‘‘क्या मेरा एक काम कर दोगे?’’


वह कुछ पल असमंजस में पड़ी सोचती रही और फिर आँखे झुकाकर बोली,‘‘यही लिख दो कि तुम इतने दिन से क्यों नहीं आए?’’


मैं उसके इस औचक प्रश्न के आशय का कोई अनुमान नहीं लगा पाया. मुझे उलझन में पड़ा देखकर वह थोड़े से मुस्कराई और बोली,‘‘कोई ऐसी वैसी बात नहीं है. अब तुम सो जाओ सवेरे बताऊँगी.’’

उसके चले जाने के बाद ही मेरी चेतना में उसके वह वाक्य,‘‘क्या मेरा एक काम कर दोगे.’’ न जाने कितनी देर गूँजता रहा. न फिर मुझे जल्दी नींद ही आई और न मैं डायरी में ही कुछ लिख पाया. ढिबरी बुझाकर मैं उस चिंतन में चारपाई पर पड़े करवटें बदलता रहा.

उस लड़की का दादा तो सुबह जल्दी ही जाग कर के किसी गाँव में कथा कहने चला गया. मैं सुबह उठकर खेतों की ओर निकल गया. लौटते में प्राइमरी मदरसा गाँव के उत्तर खंडरनुमा चंडी देवी का मंडप भी देख आया.

मैंने लौटकर अपनी डायरी खोली और पिछले दिन का विवरण लिखने लगा. कोई दसेक मिनट बीते होंगे कि वह आई और मुझे लिखते देखकर वापस जाने लगी. मैंने उसे बुलाकर कहा,‘‘क्या एक प्याला चाय मिल सकती है?’’

‘‘हाँ चाय तो मैं बना दूंगी पर प्याले घर में नहीं हैं. गिलास-कटोरी में पी लेंगे.’’? क्यों नहीं पी लूँगा. तुम लाकर तो देखो.’’

उसके चेहरे पर स्नेहशीलता भाव उभर आया. जाते-जाते बोली,‘‘दो मिनट में चाय बनाकर लाती हूँ.’’

मैं सिर झुकाकर अपनी बातें और डायरी देखने में जुट गया. वास्तव में वह अपेक्षा से कहीं अधिक जल्दी से वह चाय बनाकर ले आई और गिलास से कटोरी में चाय रखने लगी.

मैंने उसके हाथ से कटोरी लेकर फूक भरते हुए चाय की घूट भरी ही थी कि वह बोल उठी आप शहरी चीनी की चाय पीते होंगे पर घर में तो गुड़ ही था. पता नहीं कैसी बनी होगी. कही काढ़ा तो नहीं बन गई.’’

‘‘अरे नहीं, बहुत ---मीठी और बढ़िया बनी है.’’

‘‘झुट्ठी तारीफ़ क्यूँ करो हो! भला हम गाँव-घसले चाय बनाना क्या जानें. यों तो बब्बा जी भरे जाड़ों में सुबह-साँझ लोटा भर के चाय पीवे हैं. उन्हीं के लिए पूस-माघ के चिल्ला जाड़े में बनानी पड़े है.’’

‘‘कुछ भी कहो तुमने चाय बढ़िया बनाई है.’’ कहकर मैने कटोरी झुककर फर्श पर टिका दी और फिर मैं लग गया.

उसने इधर-उधर की टोह सी लेते हुए थोड़ी देर बाद कहा,‘‘हाँ, एक ख़त लिख दो.’’

‘‘ख़त? पर किसको? एक क्षण रुककर मैंने पूछा,‘‘क्या तुम लिखना नहीं जानती?’’

वह लज्जाकर बोली पर मुझसे लिखना कहाँ आता है. लिखने की कोशिश कई दिन की पर लिखा नहीं बस.

‘‘तब तो लिख दूँगा.’’ मैंने अपने बैग से एक कोड़ा कागज निकालकर कहा,‘‘बोलो किसे क्या लिखना है.’’

वह कुछ पल असमंजस में पड़ी सोचती रही और फिर आँखे झुकाकर बोली,‘‘यही लिख दो कि तुम इतने दिन से क्यों नहीं आए?’’

उनके एक छोटे से वाक्य से मैं हिल उठा और और उलझन में पड़कर पूछ बैठा,‘‘कौन है? कहाँ रहता है? इधर न आने की क्या वजह है?’’

उसके चेहरे पर उदासी का एक बादल तैरता सा दिखा और आँखे उन्मन उदास हो गई.

उसने टुकड़ों में जो कुछ बतलाया उसका सारांश यह था कि वह एक प्राइमरी स्कूल का अध्यापक था जो पहले इसी गाँव के प्राइमरी मदरसे में तैनात था और जब इस कोठड़े की छत सही सलामत थी तो इसी में रहता था. बाद में कहीं तबादला होकर चला गया था. जाने के बाद गाँव में कभी बस एक बार इधर आया था.

मैंने उससे पूछा,‘‘क्या तुम्हारे पास उसका कोई पता ठिकाना है?’’

मेरे यह कहते ही मेरी ओर से पीठ फेर ली और अपने अंत:वस्त्रों से एक कई तहों में मुड़ातुड़ा कागज़ निकालकर मेरी ओर बढ़ा दिया. उस कागज़ को मैंने अतिरिक्त सावधानी से खोला, उस पर एक नाम और किसी गाँव का पता दर्ज़ था मगर कागज़ तुड़मुड़कर और चिकनाई के धब्बों से खस्ता हो चला था.

मैंने कागज़ पर लिखे पते को अपनी डायरी में उतारा और कागज़ उसे वापस कर दिया. वह खाली कटोरा और गलास ले जाते हुए बोली, ‘‘आप लिखो मैं आपके लिए नाश्ता बनाती हूँ.’’

वह चली गई तो गहरा भावावेश अनुभव करते हुए मैंने एक काव्यात्मक पत्र लिखा. पहली वार जीवन से एक प्रेमिका के उदगारों को व्यक्त करने में मेरी सारी चेतना और संवेदना कितनी सफल हो पाई यह तो मैं नहीं बतला सकता पर मैं कुछ समय के लिए दिशा और कालबोध से परे हो ही गया.

वह आई और मुझे लिखते देखकर कुछ बोलने लगी. मैंने उसे रोका और अपना लिखा हुआ मजमून उसे देते हुए बोला, "अब तुम अपने लेखन में इस पत्र को लिखो और बाद में अपना नाम भी लिख दो. उसे यह नहीं लगना चाहिए कि इस ख़त को लिखने वाला कोई और है." साथ ही मैंने उसे एक कोरा कागज़ और कलम भी उसे दे दिया.




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मैंने कहा,‘‘मन्नो अब मुझे जाना चाहिए.’’ एक पल बाद ही सहसा मेरे मुँह से एक असत्य उच्चारण हुआ, "मुझे आगे काफी काम है.’’

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‘‘मैं कभी आऊँगा तो रुकूँगा और खाऊँगा भी. उसने चबूतरे, पर खड़े होकर मनुहार से कहा,‘‘ज़रूर आना.’’

उसके शब्दों के अतिशय अनुरोध ने मेरे अस्तित्व को मानों अथाह स्नेह से दुलरा दिया है. कोमल स्पर्श की ममतामई छवि को आँखों ही आँखों में बसाए मैं बरबस आगे बढ़ता चला गया.

उदासी के सैलाब में डूबे उसके चेहरे को मुड़कर देखने का साहस मैं खो चुका था.

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शनिवार, 27 जून 2009

गलतफहमी







कुछ लोगों को भारी गलतफहमी है की उनके
नाम इतने बड़े हो गए की उनका इस्तेमाल
करके कोई प्रचारित हो रहा है |

बे वजह तमाशा बने हुए लोग न जाने क्या क्या
समझते है .

रविवार, 1 फ़रवरी 2009

संवाद

संवाद

सृजनशीलता कभी भोथरी नहीं होती
सुप्रसिद्ध चित्रकार लाल रत्नाकर से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत


• क्या जीवन का अनुभव संसार और कला का अनुभव संसार दो अलग-अलग संसार हैं? इन दोनों के बीच आप कैसा अंतरसंबंध देखते हैं?

जीवन का अनुभव संसार मेरे लिए, मेरी कला के अनुभव संसार का उत्स है. अंतत: हरेक रचना के मूल में जीवन संसार ही तो है. जीवन के जिस पहलू को मैं अपनी कला में पिरोने का प्रयास करता हूँ, दरअसल वही संसार मेरी कला में उपस्थित रहता है. कला की रचना प्रक्रिया की अपनी सुविधाएं और असुविधाएं हैं, जिससे जीवन और कला का सामंजस्य बैठाने के प्रयास में गतिरोध आवश्यक हिस्सा बनता रहता है. यदि यह कहें कि लोक और उन्नत समाज में कला दृष्टि की भिन्न धारा है तो मुझे लगता है, मेरी कला उनके मध्य सेतु का काम कर सकती है.

• जब आप लोक और उन्नत समाज की कला दृष्टि की भिन्न धारा का जिक्र कर रहे हैं, तो क्या इसे इस तरह समझना ठीक होगा कि प्रकारांतर से आप यह भी कह रहे हैं कि परम्परा में, उन्नत समाज में लोक की उपस्थिति नहीं है या क्षीण है ?

मेरे कहने का आशय यह है कि लोक और नागर समाज की कला दृष्टि में भिन्नता है. लोक की आस्था सरलता और साधारणीकरण में है. इसके उलट नागर समाज में किसी खास किस्म की कृत्रिमता को अधिक स्थान मिला हुआ है.

• आप अपने कला के अनुभव संसार को किस तरह संस्कारित और समृध्द करते हैं?

मेरी कला का अनुभव संसार लोक है और लोक स्वंय में इतना समृध्द है कि उसे संस्कारित करने की जरुरत ही नहीं पड़ती. जहां तक मेरी कला सृजन का सवाल है तो वह ऐसे परिवेश और परिस्थिति से निकली है, जिसकी सहजता में भी असहज की उपस्थिति है.

• आप शायद अपने बचपन की ओर इशारा कर रहे हैं. मैं जानना चाहूंगा कि अपने बचपन और कला के रिश्तों को आप किस तरह देखते-परखते हैं

बचपन में कला दीर्घाओं के नाम पर पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी और मटके के चित्र, मिसिराइन के भित्ति चित्र आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए प्रेरित भी करते थे. गांव की लिपी-पुती दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से कुछ आकार देकर जो आनंद मिलता था, वह सुख कैनवास पर काम करने से कहीं ज्यादा था. स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ रेखाएं ज्यादा सकून देती रहीं और यहीं से निकली कलात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति, जो अक्षरों से ज्यादा सहज प्रतीत होने लगी. एक तरफ विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की जटिलता वहीं दूसरी ओर चित्रकारी की सरलता. ऐसे में सहज था चित्रकला का वरण. तब तक इस बात से अनभिज्ञता ही थी कि इस का भविष्य क्या होगा. जाहिर है, उत्साह बना रहा.

ग्रेजुएशन के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और गोरखपुर विश्वविद्यालय में आवेदन दिया और दोनों जगह चयन भी हो गया. अंतत: गोरखपुर विश्वविद्यालय के चित्रकला विभाग में प्रवेश लिया और यहीं मिले कलागुरू श्री जितेन्द्र कुमार. सच कहें तो कला को जानने-समझने की शुरुवात यहीं से हुई. फिर कानपुर से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कलाकुल पद्मश्री राय कृष्ण दास का सानिध्य, श्री आनन्द कृष्ण जी के निर्देशन में पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला पर शोध, फिर देश के अलग-अलग हिस्सों में कला प्रदर्शनियों का आयोजन...तो कला के विद्यार्थी के रुप में आज भी यह यात्रा जारी है. कला के विविध अछूते विषयों को जानने और उन पर काम करने की जो उर्जा मेरे अंदर बनी और बची हुई है, उनमें वह सब शामिल है, जिन्हें अपने बचपन में देखते हुए मैं इस संसार में दाखिल हुआ.

• फ़ोटोग्राफ़ी के सहज और सुलभ हो जाने से ललित कलाएँ किस तरह प्रभावित हुई हैं? यदि आपकी विधा की बात करें तो इसने चित्रकार की अंतरदृष्टि को धारदार बनाया है या फिर उसे भोथरा किया है?

फोटोग्राफी का इस्तेमाल बढ़ने से कला प्रभावित हुई है, ऐसा नहीं लगता. हां, इसके कारण कलाकार को नये तरीके और प्रयोग करने की चुनौती मिली है, जिसने सहजतया कलाकार की अन्तर्दृष्टि को सूक्ष्म बनाया है. लेकिन मैं विनम्रता के साथ उल्लेख करना चाहूंगा कि मेरे साथ इससे इतर स्थिति है. मेरे कला प्रशंसक मित्रों का मानना है कि मेरे रेखांकन की प्रतिबध्दता को कैमरे ने कमजोर किया है, जबकि मामला इससे अलग है. रेखाओं की समझ कैमरे से नही आती है. कई बार कैमरा कमजोरी बन जाता है, जिसका दूसरे कई लोग लाभ भी उठाते हैं.

विकास की धारा विभिन्न रास्तों से गुजरती है. मानव मन की अभिव्यक्ति और यथार्थ की उपस्थिति दो स्थितियां हैं, जो समाज और कलाकार के मध्य निरंतर जूझते रहते हैं. ऐसे में समाज को फोटोग्राफी अक्सर उसके करीब नजर आती है. उसमें उसे तत्काल जो कुछ देखना है दिखाई दे जाता है. पल भर की मुस्कान, खुशी, दु:ख, दर्द के अलग अलग स्नैप संतोष देते होंगे, जिनको रंगो का ज्ञान, रेखाओं की समझ है, उन्हें कहां से फोटोग्राफी वह सब दे पायेगी.

इसलिए कलाकार की अर्न्तदृष्टि की उपस्थिति उसके चित्रों के माध्यम से होती है, जिसे उसने कालांतर में अंगीकृत किया होता है, विचार प्रक्रिया के तहत गुजरा हुआ होता है. ऐसे मे चित्रकार सहजतया अपने मौलिक रचना कर्म को तर्को की प्रक्रिया से गुज़ारता है, जिससे उसकी सृजनशीलता की विलक्षणता दृष्टिगोचर होती है. ऐसे में हम यह कह सकते है कि किसी भी प्रकार का आविष्कार या विकास जब भी किसी को अर्थहीन अथवा भोथरा साबित कर देता है तो यह प्रमाणित हो जाता है कि उसमें दम नहीं है. अन्यथा चित्रकार की अपनी धार होती है और अगर वह सृजनशील है तो वह कभी भोथरी हो ही नहीं सकती.
• आपने स्त्रियों पर काफी काम किया है, यदि मैं भूल नहीं रहा हूं तो आपकी पूरी एक श्रृंखला आधी दुनिया स्त्रियों पर केंद्रित है. आपकी स्त्री किससे प्रेरित है?

स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्षित, प्रभावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है, जिसे पढ़ना बहुत ही सरल होता है. मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मैं पुरुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता.

मुझे ऐसा लगता है कि स्त्री सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है. सौंदर्य और स्त्री एक-दूसरे के साथ उपस्थित होते हैं. ऐसे में सृजन की प्रक्रिया बाधित नहीं होती. मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं, कृष्ण की राधा नहीं हैं और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं. ये खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली स्त्रियां हैं.

• आपकी स्त्री कर्मठ और गठीली दिखाई देते है, एक तरह की दृढ़ता भी नजर आती है. आपकी स्त्री भद्रलोक की नारी नहीं है वह खेतिहर है, मजदूरी करती है, क्या ऐसा आपकी ग्रामीण पृष्ठभूमि के कारण है?

मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है. यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा. उनके लय, उनके रस के मायने जानना होगा. उनकी सहजता, उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं, दो जून रूखा-सूखा खाकर तन ढ़क कर यदि कुछ बचा तो धराऊं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आती हैं, वस्तुत: वैसी वो होती नहीं हैं.

उनका भी मन है, मन की गुनगुनाहट है, जो रचते है अद्भूद गीत, संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है. उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे, यही प्रयास दिन-रात करता रहता हूं. मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं किसी दूसरे विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा.

• इसमें क्या संदेह है कि देह की एक लय होती है और उसका अपना एक संगीत होता है. लेकिन आपके यहाँ देह की लय लगभग अनुपस्थित है, वहाँ देह एक स्थूलता के साथ सामने आता है, न तो नारी देह में नाज़ुकी की लय है और न पुरुष में बलिष्ठता. अगर है तो वह आलाप नहीं विलाप है. क्या यह अनायास ही है या फिर आपने सायास इसे अपनाए रखा है?


बेशक बिना लयात्मक्ता के कला निर्जीव होती है परन्तु मेरे हिस्से वाले जीवन में यदि कुछ अनुपस्थित है तो देह और देह की लय को निहारने की दृष्टि, परन्तु मैंने कोशिश की है उस जीवन के यथार्थ के सौन्दर्य को बिना प्रतिमानों के उकेरने की. यहां मेरे चित्रों के पात्र अपनी देह का अर्थ ही नही समझते. उनके पास देह तो है परन्तु उस देह का बाजार से क्या सम्बन्ध है वह नहीं जानते. जबकि बाजारीकरण उसी देह में लोच और अलंकारिकता की वह कुशलता भर देता है जिससे उसकी अपनी उपस्थिति गायब हो जाती है और प्रस्तुत होता है उसका वह सुहावना, सलोना और आकर्षक रूप जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी जिन्दगी में कहीं कुछ कमी ही नही है. जीवन के सारे द्वंद्व् खत्म हो गए हों.

अनेक चित्रकारों के आदिवासी स्वरूप मैंने देखे हैं, जिनमें वे चमचमाते हुए किसी स्वर्गलोक के लोग नजर आते हैं. ऐसे लोग जिन्हें न कोई काम काज करना है और न ही आनन्द मनाने के अतिरिक्त उनके पास कोई काम काज है. इसलिए मुझे किंचित अफसोस नहीं होता कि मैं उस सुकोमल नारी और बलिष्ठ पुरुष का प्रतिनिधित्व करूं. बल्कि उस यथार्थ के सृजन में सुकुन और शांति मिलती है जो चिन्तित है अथवा बोझिल है. जिनके पुरूष सारी बलिश्ठता श्रम के हवाले कर चुके हैं-रोग, व्याधि, कर्ज और समय की मार से.

• स्त्री आपकी कला के केंद्र में है और रंग बहुत गहरे हैं. इनमें आपस के रिश्ते को आप किस तरह रेखांकित करेंगे?

जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलत: वह रंगों के प्रति सजग होती है. उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है, जिन्हें वह सदा वरण करती हैं. मूलत: ये मूल रंग इनके मूल में बसे होते हैं यथा लाल पीला नीला. बहुत आगे बढ़ीं तो हरा, बैगनी और नारंगी इनके जीवन में उपस्थित होता है. इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं, वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेश संप्रेषित करते हैं. इन रंगो में प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं. इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है. उत्सवी एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं.

• समकालीन दुनिया में हो रहे बदलाव के बरक्स यदि आपकी स्त्री की ही बात करें तो इस बदलाव को किस तरह देख रहे हैं ?

आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्रभावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते हुए सरोकारों को स्वीकार कर ले. हमारे सामने जो खतरा आसन्न है, उससे एकबारगी लगता है कि इस आपाधापी में उसकी अपनी पहचान न खो जाए.

समकालीन दुनिया के बदलते परिवेश के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है, जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है. इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृध्द होता है, उसमें यह बाज़ार आमूल चूल परिवर्तन करके एक अलग दुनिया रचेगा, जिसमें उस परिवेश विशेष की निजता के लोप होने का खतरा नजर आता है.• चित्रकला एक तरह से साहित्य की पड़ोसी होती है, तो आप किन कवियों, कथाकारों को पढ़ते और गुनते हैं? क्या इससे आपकी कला प्रभावित होती है और यदि होती है तो किस तरह?

' कबि और चितेरे की डाड़ामेडी' कहानी आपने ज़रुर पढ़ी होगी. मैंने भी पढ़ी है. और ठीक से जिसको पढ़ा है उसमें सबसे उपर मुंशी प्रेमचंद और रेणु का नाम आता है. उसी क्रम में शरतचन्द्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, धर्मवीर भारती, राही मासूम रजा को पढ़ने तथा समकालीन कथाकारों में कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, शिवमूर्ति, से. रा. यात्री, संजीव और कुंअर बेचैन के करीब होने का सुअवसर मिला है.

इन सभी के कथा-संसार ने मेरी कला को समृध्द किया है. इनके पात्र मुझे आमंत्रित करते हैं. नि:संदेह कला और रचनात्मकता के नाना स्वरुप एक-दूसरे के लिए एक अवकाश की उपस्थिति तो देते ही हैं.

• एक ऐसे समय में जब बाज़ार में करोड़ों रु. में कोई पेंटिंग खरीदी-बेची जा रही हो, कला के सामाजिक सरोकार को आप किस तरह देखते हैं ?

सदियों पुरानी कला का जो मूल्यांकन आज हो रहा है, वह कम से कम उस अनजाने कलाकार के लिए तो किसी भी तरह से लाभदायक नहीं है. दूसरी बात ये कि आज भी जिस प्रकार से बाजार में कला की करोड़ो रूपये कीमत लग रही है, उससे भले कलाकारों को प्रोत्साहन मिल रहा होगा, लेकिन यह शोध का विषय हो सकता है कि अंतत: बाज़ार में किसकी कीमत है? लेकिन इन सबके बाद भी हरेक कलाकार अपने समय के पृष्ठ तनाव से ही तो मुठभेड़ करता है. और इस पृष्ठ तनाव में उसका समाज और उसका सरोकार ही तो शामिल होता है.

• समाज का एक बड़ा वर्ग है, जिसके हिस्से में ज़िंदगी के दूसरे संघर्ष इतने बड़े हैं कि वहां कला के लिए कोई अवकाश नहीं है. आपके उत्तर को ही समझने की कोशिश करूं तो कला का बाज़ार और बाजार की कला की उपादेयता और कहीं-कहीं आतंक, अंतत: इस समाज को समृध्द नहीं कर रहे हैं. ज़ाहिर है, इसमें कला की जरुरत पर भी सवाल खड़े होते हैं ?


जीवन के सारे उपक्रम अंतत: इस दुनिया को सुंदर बनाने के ही उपक्रम हैं. कला के विविध माध्यम कहीं न कहीं हमारे कार्य-व्यापार को और सरल ही बनाते हैं. इसकी जरुरत इतनी आसानी से खत्म होने वाली नहीं है, हां आपूर्ति जब-जब कटघरे में खड़ी होगी, तब-तब इस तरह के सवाल जरुर उपजेंगे.

• कला के व्यावसायिकरण पर काफी बहस हो चुकी है. फिल्मों और विज्ञापनों की बात करें तो इसमें नई तरह की रचनात्मकता दिखाई दे रही है जो कि आम आदमी के काफी करीब भी नजर आती है. दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि उनमें एक तरह का सामाजिक सरोकार नहीं तो सामाजिक हलचल तो दिखाई दे ही रही है. पेंटिंग के बारे में आप क्या सोचते हैं?

यह कहना संभवत: सही नहीं है कि वर्तमान समय में फिल्मों एवं विज्ञापनों में सामाजिक सरोकार बढ़ा है या वे जीवन के अधिक निकट आई हैं बल्कि वास्तविकता तो यह है कि वह आम आदमी के जीवन से दूर होती जा रही हैं. इनमें जिस आम आदमी की बात होती है वह शहरी मध्यवर्गीय समाज है. निम्न वर्ग, गांव और उसके आदमी, उसमें कहीं नहीं हैं. इस पर भी वह शहरी मध्यवर्गीय जीवन को नहीं वल्कि उसके सपनों को ही दिखाते हैं या यूं कहें कि सपनों का कारोबार करते है.

कमोबेश पेंटिंग का भी यही हाल है. आए दिन समाचार पत्रों की सुर्खियां कला और कलाजगत के घाल-मेल को उजागर करती रहती हैं. कला में आज सामाजिक हलचल की जगह तिकड़मबाजी ने ले ली है. आज कला के बाजार में विविध प्रकार के द्वार खुल रहे हैं. जबकि कायदे से अभी तक चित्रकला की संभावनाओं पर बहस शुरु भी नहीं हुई है.

• राजनीतिक समाज और नागरिक समाज एक तरह से कला के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं. यहाँ तक कि अच्छी फ़िल्मों को भारत में कला-फ़िल्में कह कर एक तरह से हाशिए पर रख दिया जाता है और कहा जाता है कि वह कुछ ख़ास किस्म के लोगों के लिए बनाई गई फ़िल्म है, आम लोगों के लिए नहीं. कमोबेश यही स्थिति चित्रकला के साथ नज़र आती है जिसमें कला को समझने, सराहने और ख़रीदने का जिम्मा कुछ ही लोगों तक सीमित नज़र आता है. इस विद्रूपता को आप किस तरह देखते हैं?

आज की राजनीति में मुझे ऐसा नेतृत्व नहीं नजर आता, जो अपनी कला के कारण अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हो. हिंदी पट्टी में यह स्थिति और ख़राब है. नागर समाज में कला का यह स्वरुप और भी भोंडेपन के साथ उभर कर सामने आया है. चाहे वो वस्त्र का मामला हो या फिल्मों का. कला की दुनिया में एक खास किस्म का वर्ग उभर कर सामने आया है, जिसके लिए कला जीवन का विषय नहीं है. ऐसे वर्ग के लिए हरेक कला केवल निवेश का मुद्दा है.

• क्या आप ऐसा कोई समय आता हुआ देखते हैं जिसमें कला, बाज़ारनिष्ठ होते जा रहे समाज में आमजन तक पहुँचे, सभी उसे समझ सकें और उसकी सराहना कर सकें?

सिध्दांत के तौर पर कहें तो वह कला ही क्या जो आमजन के लिए न हो. लेकिन यह किंचित पीड़ा के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि कला और आमजन के बीच एक दूरी हमेशा से रही है और इसीलिए हमेशा से हमारे देश में कला को राजाश्रय में जाना पड़ा है. आमजनों के भरोसे कला का जीवित रहना न पहले संभव था और न अब है. इसलिए यदि समाज बाज़ारनिष्ठ होता जा रहा है तो यह एक शुभ संकेत इन मायनों में तो है ही कि शायद इसी तरह कला को राजाश्रय का मोहताज न होना पड़े. लेकिन जहाँ तक समझ का सवाल है तो इसके लिए जो संस्कार चाहिए, वो दुर्भाग्य से समाज में नहीं दे पा रहे हैं और इसलिए कला आमजन की समझ या पहुँच से दूर दिखाई देती है.

बुधवार, 21 जनवरी 2009

Exhibition in MUMBAI


Aadhi Aabadi
vk/kh vkcknh
Exhibition Of Paintings
by
Dr.Lal Ratnakar
Jehangir Art Gallery Mumbai,Gallery-3
161-B, Mahatma Gandhi Road,Mumbai-400001
(Kala Ghoda)
November 05th to 11th ,2008
11am to 07pm
Contact-09810566808,09868999781
www.ratnakarsart.com
artistratnakar@gmail.com

सोमवार, 25 अगस्त 2008

प्रेस क्लब आफ इंडिया द्वारा प्रायोजित प्रथम प्रेस क्लब गैलरी की पहली प्रदर्शनी


प्रेस क्लब आफ इंडिया द्वारा प्रायोजित प्रथम प्रेस क्लब गैलरी की पहली प्रदर्शनी -