सोमवार, 21 मार्च 2011

‘नारीजाति की तरंगे’ शीर्षक से इन दिनों एक चित्र प्रदर्शनी ललित कला अकादमी, रवीन्द्र भवन की कलादीर्घा 7 व 8 में 19 मार्च 2011 तक

आधी आबादी और मेरे चित्र 
डा. लाल रत्नाकर

                  दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया बनती है.
                  यही वह आवादी है जो सदियों से संास्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. कहने को वह आधी आबादी है लेकिन षेश आधी आबादी यानी पुरूशों की दुनिया में उसकी जगह सिर्फ हाशिऐ पर दिखती है जबकि हमारी दुनिया में दुख दर्द से लेकर उत्सव-त्योहार तक हर अवसर पर उसकी उपस्थिति अपरिहार्य दिखती है जहां तक मेरे चित्रों के परिवेश का सवाल है, उनमें गांव इसलिए ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि मैं खुद अपने आप को गांव के नजदीक महशूस करता हूॅं सच कहूॅ तो वही परिवेश मुझे सजीव, सटीक और वास्तविक लगता है. बनावटी और दिखावटी नहीं. 
                 बार-बार लगता है की हम उस आधी आवादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर है.

नारीजाति की तरंगे-

               मेरे चित्रों की ‘नारीजाति की तरंगे’ शीर्षक से इन दिनों एक चित्र प्रदर्शनी ललित कला अकादमी, रवीन्द्र भवन की कलादीर्घा 7 व 8 में 19 मार्च 2011 तक चलेेंगी, प्रदर्शनी प्रातः 11 बजे से सायं 7 बजे तक खुली रहती है। 
               इस चित्र प्रदर्षनी में नारीजाति की तरंगे विषय को केन्द्र में रखकर चित्रों का चयन करके उन्हें प्रदर्शित किया गया है जिनमें भारतीय नारीजाति की विविध आयामी स्वरूपों का दृश्याकंन किया गया है जिनमें-यह दिखाने का प्रयत्न किया गया है जिनमें जिस रूप में स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्शित, प्रभावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है जो पढ़ना बहुत ही सरल होता है. आप मान सकते हैं कि मैं पुरुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता हूं । मैने बेशक स्त्रियों को ही अपने चित्रों में प्रमुख रुप से चित्रित किया है, क्योकि मुझे नारी सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है कहीं कहंी के फुहड़पन को छोड़ दंे तो वे आनन्दित करती आयी हैं जिसे हम बचपन से पढ़ते सुनते और देखते आए हैं यदि हम यह कहें कि नारी या श्रृंगार दोनों में से किसी एक को देखा जाए तो दूसरा स्वतः उपस्थित होता है ऐसे में सृजन की प्रक्रिया वाधित नहीं होती वैसे तो प्रकृति, पशु, पक्षी, पहाड,़ पठार और पुरूश कभी कभार बन ही जाते हैं. परन्तु शीतलता या सुकोमल लता के बदले किसी को चित्रित किया जा सकता है तो वह सम्भवतः नारी ही है.
                 मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं कृश्ण की राधा नहीं है और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं ये स्त्रियां खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली जिन्हें वह अपना राम और कृष्ण समझती हैं लक्ष्मीबाई जैसे नहीं लेकिन अपनी आत्म रक्षा कर लेती हैं वही मुझे प्रेरणा प्रदान करती हैं।
                 मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा उनके लय उनके रस के मायने जानना होगा, उनकी सहजता उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं दो जून रूखा सूखा खाकर तन ढक कर यदि कुछ बचा तो धराउूं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आते हैं वैसे होते नहीं उनका भी मन है मन की गुनगुनाहट है जो रचते है अद्भूद गीत संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे यही प्रयास दिन रात करता रहता हूं. उनके पहनावे उनके आभूषण जिन्हें वह अपने हृदय से लगाये रात दिन ढ़ोती है वह सम्भव है भद्रलोक पसन्द न करता हो और उन्हें गंवार समझता हो लेकिन इस तरह के आभूषण से लदी फदी स्त्रियां उस समाज की भद्र मानी जाती है ये भद्र महिलाएं भी मेरे चित्रों में सुसंगत रूपों में उपस्थित रहती हैं मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं और भी विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा ऐसा भी नहीं मैंने छोटी सी कोशिश भर की है उनको समझने की।
                  जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलतः वह रंगों के प्रति सजग होती है उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है जिन्हे वह सदा वरण करती हैं,मूलतः ये मूल रंग इनके मूल में बसे होतेे हैं यथा लाल पीला नीला बहुत आगे बढ़ी तो हरा बैगनी और नारंगी इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेष सम्प्रेषित करते हैं इन रंगो मे प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं .
                  इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है, उत्सव एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं।
                  आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्रभावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते सरोकारों को स्वीकारे लेकिन निकट भविष्य में मूलतः जो खतरा दिखाई दे रहा है वह यह है कि इस आपाधापी में उसकी अपनी पहचान ही न खो जाए.समकालीन दुनिया के बदलते परिवेष के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृद्ध होता है उसमें आमूल चूल परिवर्तन एक अलग दुनिया रचेगा जिससे सम्भवतः उस परिवेश विशेष की निजता न विलुप्त हो जाए।
                  सहज है वेशकीमती कलाकृतियां समाज या आमजन के लिए सपना ही होंगी मेरा मानना इससे भिन्न है जिस कला को बाजार का संरक्षण मिल रहा है उससे कला उन्नत हो रही है या कलाकार सदियों से हमारी कलायें जगह जगह विखरी पड़ी हैं अब उनका मूल्यांकन हीे भी तो उससे तब के कलाकारों को क्या लाभ. आज भी जिस प्रकार से बाजार कला की करोड़ो रूपये कीमत लगा रहा है बेशक उससे कलाकारों को प्रोत्साहन मिलता है वह उत्साहित होता है लेकिन यह खोज का विषय है कि यह करोड़ो रूपये किन कलाकारों को मिल रहे हैं. कम से कम समाज ने तो इसे सुन सुन कर कलाकार को सम्मान देना आरम्भ कर दिया है कल तक जहां कला को कुछ विशेष प्रकार के लोगों का काम माना जा रहा था आज हर तबके के लोग कलाकार बनने की चाहत रखते हैं इससे कलाकार की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ी है। 































































बुधवार, 16 मार्च 2011

Exhibition Of Selected Paintings

vibes
of
womenfolk


Your benign presence is requested on the opening of
an exhibition of selected paintings


by
Dr.Lal Ratnakar
at
Lalit Kala Academy
Gallery No. 7 & 8
Ravindra Bhawan,
35, Feroz Shah Road, Near Mandi House,
NEW DELHI.


on
Sunday, March, 13th, 2011 at 5-00pm


Shri Santosh Bhartiy
Editor, Chouthi Duniya and former member of parliament


Has kindly consented to open the show.


RSVP:
09810566808
artistratnakar@gmail.com


Exhibition will remain on view, from 13th to 19th March,2011
11am to 07pm daily.




गुरुवार, 20 मई 2010

कला में पैठ और कलात्मक बलात्कार






डॉ.लाल रत्नाकर
अब आमजन और खास जन की कला का भेद बहुत साफ तौर पर नज़र आने लगा है, आमजन की कला में व्यवसयिकता ने नियमों की मान्यताओ की सारी सीमाओं का उल्लंघन कर दिया है यदि कुछ भी साफ सुथरा कहीं हो सकता है तो वह है बाज़ार से सुदूर गाँव के वह लोग जिन्हें आज की व्यवसयिकता ने अपने आगोश में नहीं लिया है. जब जब कला पर विचार की बात आती है तो मेरे सामने समाज के सामने वही गिने चुने नामचीन लोग जिन्हें जीवन की नहीं रचना की तकनीक बड़ी लगती है, तकनीक तो तब भी थी पर फर्क इतना हुआ है की तब मायने रचना की देशज प्रक्रिया के थे पर अब वैश्विक सरोकार खड़े है, कला पहचानी जाती ही देशज प्रतीकों मान्यताओ तकनीकियो से 'न' की नकली मृग्मरिचिकाओं से . आज का बौद्धिक समाज जितने गूढ़ संसर्गों के साथ कला पर काबिज होने का दंभ भर रहा है वह मूलतः कलात्मक प्रवृतियो पर हमला है. साथ ही साथ एक बड़ी साजिश के साथ भी इसमे बाज़ार कम व्यभिचार ज्यादा है. यद्यपि व्यभिचार अटपटा लग सकता है पर यदि इस पर विचार किया जाय तो स्पष्ट रूप से यही स्थितियां नज़र आएँगी यहाँ हमारी यही कोशिश है की साफ तौर पर इस अवधारणा पर बात की जाये -
आजादी के बाद विविध क्षेत्रों में विकास की अवधारणाएं आई जिनमे अनेकों संस्थाए खड़ी की गयी उनके उद्येश्य अवश्य पवित्र रहे होंगे जिनके मन में ये विचार आये होंगे की हमें साहित्य संगीत और ललित कलाओं के उत्थान पर काम करना है. पर आज हो क्या रहा है यही कारन था की इनकी अकादमियां स्थापित की गयी थी जिसमे यहाँ विशेष सन्दर्भ ले रहे है ललित कला अकादमी नई दिल्ली का आंकणों का लेखा जोखा निकाला जाय तो यह बात प्रकाश में आती है की कला को बढ़ाने की बजाय अपनो अपनों को बढ़ाने की प्रवृति ने पूरे कला जगत में एक वर्ग खड़ा कर दिया यद्यपि यह दृष्टि मेरी ही नहीं कई बड़े और कुशल कलाकारों की भी है जिनका मानना है की वहां कला और कलाकार की पूंछ नहीं होती ग्रुप की होती है यथा बरोदा तो बड़ोदा कोलकाता तो कोलकाता पंजाबी तो पंजाबी पर इनके बीच जो सबसे महत्त्व का तत्व होता है वह है 'ब्रह्मण' कलाकार है या नहीं यदि ब्रह्मण है तो चलेगा, जिसका अब इतना असर हो गया है की यदि आप इसके खिलाफ आवाज़ उठाते है तो आप को कला विरोधी और अ कलाकार घोषित कर दिया जायेगा. विरोध के स्वर कई बार उठे पर सारी सामाजिक इकाइयों की तरह इस विरोध का नेतृत्व ब्राहमण ले लेता है और धीरे धीरे सारी लड़ाई/ विरोध ही बंद हो जाता है.
यहाँ यह सवाल उठाना बेमानी ही होगा की देशज कलाकारों की क्या गति हुई फिर जवाब की लड़ी राष्ट्रीय कला संग्रहालय आधुनिक कला संग्रहालय इतना ही नहीं क्राफ्ट म्यूजियम आदि आदि. कुल मिलकर इतना घाल-मेल की पूरी अवाम इसी में गोते खाती रही और कला की कलाकारी उनसे चलती रहे आज इस पूरे प्रोसेस में वास्तविक कलाकार की जगह कहाँ है खोजनी पड़ेगी पर इसकी खोज के लिए भारतीय सरकार का संस्कृती मंत्रालय निरंतर काम कर रहा है पर आज तक उसकी तलास कहाँ पहुंची है यह एक अलग शोध का सवाल है .
दूसरी ओर विविध प्रकार के कला संस्थान और उनके प्राध्यापक इन पर बड़ी जिम्मेदारी थी कला के विकास की पर इन्होने राष्ट्रीय धारा का सहारा लिया और बड़ी सिद्दत से कला उत्थान में जम गए "मुझे याद है एक बार मेरे एक मित्र ने कला पर एक आलेख खासकर जिस विश्व विद्यालय में हम लोग है पर लिखने का आग्रह किये मै बड़े उत्साह में बगैर भेदभाव के लिख दिया 'वहां के कला विषय की कुशलता पाठ्यक्रम की सारगर्भिता गौरवपूर्ण पारदर्शिता ५५ वर्षों का कला उत्थान गलती से या व्यस्तातावश बगैर उनकी सम्पद्कियता की कुतर छांट के छप गया .छपने की प्रक्रिया में कई त्रुटियाँ अलग तरह की थी जो अशोभनीय थीं पर काफी दिनों बाद मेरे मित्र की शिकायत थी वह कोई लेख था वह, वह तो पत्रकार जैसी रिपोर्टिंग थी जबकि वहीँ पर उनके आलेखों में प्रशंसा के आलावा सच का कहीं नामों निशान नहीं कमोवेश यही हाल कलाओं के शोध लेखन एवं उनकी तकनीकियों के मामले में दिखाई देता है.
कई एसे साहित्य कला पर पुस्तकाकार रूप में आये है जिनमे इतनी गलत जानकारियां है, इतने अशोभनीय और सिद्धान्तहीन रेखांकन है जिनका सरासर अनुकरण पूरे परिक्षेत्र में चल रहा है, एक विदुषी तो येसी भी है जिनको कला न तो विरासत में मिली और न ही कला का कोई अध्ययन जिसका कोई लेना देना नहीं है पर देश का हर आदमी उस कला को लेकर बहस पर बहस किये जा रहा है, जहाँ कला नदारद है और साहित्य ने सारा ठेका लेकर गुणगान किये जा रहा है की नग्नता नहीं है, कला में कुछ भी नंगा नहीं होता, निर्वस्त्रता तो कला को उन्नत कराती है, यह भी अजीबो गरीब कहानी है जहाँ न अनुपात है और न ही शारीर सौष्ठव पूरा का पूरा साम्राज्य नक़ल की पराकाष्ठा को पार कर रहा है जहाँ शुद्ध रूप से जातीय अहंकार और उसकी प्रशंशा की गयी है क्योंकि जितने वाह वाह हुए है उसमे कहीं कला की समझ नज़र नहीं आती है .
(क्रमशः)

रविवार, 9 मई 2010