रविवार, 1 फ़रवरी 2009

संवाद

संवाद

सृजनशीलता कभी भोथरी नहीं होती
सुप्रसिद्ध चित्रकार लाल रत्नाकर से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत


• क्या जीवन का अनुभव संसार और कला का अनुभव संसार दो अलग-अलग संसार हैं? इन दोनों के बीच आप कैसा अंतरसंबंध देखते हैं?

जीवन का अनुभव संसार मेरे लिए, मेरी कला के अनुभव संसार का उत्स है. अंतत: हरेक रचना के मूल में जीवन संसार ही तो है. जीवन के जिस पहलू को मैं अपनी कला में पिरोने का प्रयास करता हूँ, दरअसल वही संसार मेरी कला में उपस्थित रहता है. कला की रचना प्रक्रिया की अपनी सुविधाएं और असुविधाएं हैं, जिससे जीवन और कला का सामंजस्य बैठाने के प्रयास में गतिरोध आवश्यक हिस्सा बनता रहता है. यदि यह कहें कि लोक और उन्नत समाज में कला दृष्टि की भिन्न धारा है तो मुझे लगता है, मेरी कला उनके मध्य सेतु का काम कर सकती है.

• जब आप लोक और उन्नत समाज की कला दृष्टि की भिन्न धारा का जिक्र कर रहे हैं, तो क्या इसे इस तरह समझना ठीक होगा कि प्रकारांतर से आप यह भी कह रहे हैं कि परम्परा में, उन्नत समाज में लोक की उपस्थिति नहीं है या क्षीण है ?

मेरे कहने का आशय यह है कि लोक और नागर समाज की कला दृष्टि में भिन्नता है. लोक की आस्था सरलता और साधारणीकरण में है. इसके उलट नागर समाज में किसी खास किस्म की कृत्रिमता को अधिक स्थान मिला हुआ है.

• आप अपने कला के अनुभव संसार को किस तरह संस्कारित और समृध्द करते हैं?

मेरी कला का अनुभव संसार लोक है और लोक स्वंय में इतना समृध्द है कि उसे संस्कारित करने की जरुरत ही नहीं पड़ती. जहां तक मेरी कला सृजन का सवाल है तो वह ऐसे परिवेश और परिस्थिति से निकली है, जिसकी सहजता में भी असहज की उपस्थिति है.

• आप शायद अपने बचपन की ओर इशारा कर रहे हैं. मैं जानना चाहूंगा कि अपने बचपन और कला के रिश्तों को आप किस तरह देखते-परखते हैं

बचपन में कला दीर्घाओं के नाम पर पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी और मटके के चित्र, मिसिराइन के भित्ति चित्र आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए प्रेरित भी करते थे. गांव की लिपी-पुती दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से कुछ आकार देकर जो आनंद मिलता था, वह सुख कैनवास पर काम करने से कहीं ज्यादा था. स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ रेखाएं ज्यादा सकून देती रहीं और यहीं से निकली कलात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति, जो अक्षरों से ज्यादा सहज प्रतीत होने लगी. एक तरफ विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की जटिलता वहीं दूसरी ओर चित्रकारी की सरलता. ऐसे में सहज था चित्रकला का वरण. तब तक इस बात से अनभिज्ञता ही थी कि इस का भविष्य क्या होगा. जाहिर है, उत्साह बना रहा.

ग्रेजुएशन के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और गोरखपुर विश्वविद्यालय में आवेदन दिया और दोनों जगह चयन भी हो गया. अंतत: गोरखपुर विश्वविद्यालय के चित्रकला विभाग में प्रवेश लिया और यहीं मिले कलागुरू श्री जितेन्द्र कुमार. सच कहें तो कला को जानने-समझने की शुरुवात यहीं से हुई. फिर कानपुर से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कलाकुल पद्मश्री राय कृष्ण दास का सानिध्य, श्री आनन्द कृष्ण जी के निर्देशन में पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला पर शोध, फिर देश के अलग-अलग हिस्सों में कला प्रदर्शनियों का आयोजन...तो कला के विद्यार्थी के रुप में आज भी यह यात्रा जारी है. कला के विविध अछूते विषयों को जानने और उन पर काम करने की जो उर्जा मेरे अंदर बनी और बची हुई है, उनमें वह सब शामिल है, जिन्हें अपने बचपन में देखते हुए मैं इस संसार में दाखिल हुआ.

• फ़ोटोग्राफ़ी के सहज और सुलभ हो जाने से ललित कलाएँ किस तरह प्रभावित हुई हैं? यदि आपकी विधा की बात करें तो इसने चित्रकार की अंतरदृष्टि को धारदार बनाया है या फिर उसे भोथरा किया है?

फोटोग्राफी का इस्तेमाल बढ़ने से कला प्रभावित हुई है, ऐसा नहीं लगता. हां, इसके कारण कलाकार को नये तरीके और प्रयोग करने की चुनौती मिली है, जिसने सहजतया कलाकार की अन्तर्दृष्टि को सूक्ष्म बनाया है. लेकिन मैं विनम्रता के साथ उल्लेख करना चाहूंगा कि मेरे साथ इससे इतर स्थिति है. मेरे कला प्रशंसक मित्रों का मानना है कि मेरे रेखांकन की प्रतिबध्दता को कैमरे ने कमजोर किया है, जबकि मामला इससे अलग है. रेखाओं की समझ कैमरे से नही आती है. कई बार कैमरा कमजोरी बन जाता है, जिसका दूसरे कई लोग लाभ भी उठाते हैं.

विकास की धारा विभिन्न रास्तों से गुजरती है. मानव मन की अभिव्यक्ति और यथार्थ की उपस्थिति दो स्थितियां हैं, जो समाज और कलाकार के मध्य निरंतर जूझते रहते हैं. ऐसे में समाज को फोटोग्राफी अक्सर उसके करीब नजर आती है. उसमें उसे तत्काल जो कुछ देखना है दिखाई दे जाता है. पल भर की मुस्कान, खुशी, दु:ख, दर्द के अलग अलग स्नैप संतोष देते होंगे, जिनको रंगो का ज्ञान, रेखाओं की समझ है, उन्हें कहां से फोटोग्राफी वह सब दे पायेगी.

इसलिए कलाकार की अर्न्तदृष्टि की उपस्थिति उसके चित्रों के माध्यम से होती है, जिसे उसने कालांतर में अंगीकृत किया होता है, विचार प्रक्रिया के तहत गुजरा हुआ होता है. ऐसे मे चित्रकार सहजतया अपने मौलिक रचना कर्म को तर्को की प्रक्रिया से गुज़ारता है, जिससे उसकी सृजनशीलता की विलक्षणता दृष्टिगोचर होती है. ऐसे में हम यह कह सकते है कि किसी भी प्रकार का आविष्कार या विकास जब भी किसी को अर्थहीन अथवा भोथरा साबित कर देता है तो यह प्रमाणित हो जाता है कि उसमें दम नहीं है. अन्यथा चित्रकार की अपनी धार होती है और अगर वह सृजनशील है तो वह कभी भोथरी हो ही नहीं सकती.
• आपने स्त्रियों पर काफी काम किया है, यदि मैं भूल नहीं रहा हूं तो आपकी पूरी एक श्रृंखला आधी दुनिया स्त्रियों पर केंद्रित है. आपकी स्त्री किससे प्रेरित है?

स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्षित, प्रभावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है, जिसे पढ़ना बहुत ही सरल होता है. मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मैं पुरुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता.

मुझे ऐसा लगता है कि स्त्री सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है. सौंदर्य और स्त्री एक-दूसरे के साथ उपस्थित होते हैं. ऐसे में सृजन की प्रक्रिया बाधित नहीं होती. मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं, कृष्ण की राधा नहीं हैं और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं. ये खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली स्त्रियां हैं.

• आपकी स्त्री कर्मठ और गठीली दिखाई देते है, एक तरह की दृढ़ता भी नजर आती है. आपकी स्त्री भद्रलोक की नारी नहीं है वह खेतिहर है, मजदूरी करती है, क्या ऐसा आपकी ग्रामीण पृष्ठभूमि के कारण है?

मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है. यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा. उनके लय, उनके रस के मायने जानना होगा. उनकी सहजता, उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं, दो जून रूखा-सूखा खाकर तन ढ़क कर यदि कुछ बचा तो धराऊं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आती हैं, वस्तुत: वैसी वो होती नहीं हैं.

उनका भी मन है, मन की गुनगुनाहट है, जो रचते है अद्भूद गीत, संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है. उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे, यही प्रयास दिन-रात करता रहता हूं. मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं किसी दूसरे विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा.

• इसमें क्या संदेह है कि देह की एक लय होती है और उसका अपना एक संगीत होता है. लेकिन आपके यहाँ देह की लय लगभग अनुपस्थित है, वहाँ देह एक स्थूलता के साथ सामने आता है, न तो नारी देह में नाज़ुकी की लय है और न पुरुष में बलिष्ठता. अगर है तो वह आलाप नहीं विलाप है. क्या यह अनायास ही है या फिर आपने सायास इसे अपनाए रखा है?


बेशक बिना लयात्मक्ता के कला निर्जीव होती है परन्तु मेरे हिस्से वाले जीवन में यदि कुछ अनुपस्थित है तो देह और देह की लय को निहारने की दृष्टि, परन्तु मैंने कोशिश की है उस जीवन के यथार्थ के सौन्दर्य को बिना प्रतिमानों के उकेरने की. यहां मेरे चित्रों के पात्र अपनी देह का अर्थ ही नही समझते. उनके पास देह तो है परन्तु उस देह का बाजार से क्या सम्बन्ध है वह नहीं जानते. जबकि बाजारीकरण उसी देह में लोच और अलंकारिकता की वह कुशलता भर देता है जिससे उसकी अपनी उपस्थिति गायब हो जाती है और प्रस्तुत होता है उसका वह सुहावना, सलोना और आकर्षक रूप जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी जिन्दगी में कहीं कुछ कमी ही नही है. जीवन के सारे द्वंद्व् खत्म हो गए हों.

अनेक चित्रकारों के आदिवासी स्वरूप मैंने देखे हैं, जिनमें वे चमचमाते हुए किसी स्वर्गलोक के लोग नजर आते हैं. ऐसे लोग जिन्हें न कोई काम काज करना है और न ही आनन्द मनाने के अतिरिक्त उनके पास कोई काम काज है. इसलिए मुझे किंचित अफसोस नहीं होता कि मैं उस सुकोमल नारी और बलिष्ठ पुरुष का प्रतिनिधित्व करूं. बल्कि उस यथार्थ के सृजन में सुकुन और शांति मिलती है जो चिन्तित है अथवा बोझिल है. जिनके पुरूष सारी बलिश्ठता श्रम के हवाले कर चुके हैं-रोग, व्याधि, कर्ज और समय की मार से.

• स्त्री आपकी कला के केंद्र में है और रंग बहुत गहरे हैं. इनमें आपस के रिश्ते को आप किस तरह रेखांकित करेंगे?

जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलत: वह रंगों के प्रति सजग होती है. उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है, जिन्हें वह सदा वरण करती हैं. मूलत: ये मूल रंग इनके मूल में बसे होते हैं यथा लाल पीला नीला. बहुत आगे बढ़ीं तो हरा, बैगनी और नारंगी इनके जीवन में उपस्थित होता है. इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं, वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेश संप्रेषित करते हैं. इन रंगो में प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं. इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है. उत्सवी एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं.

• समकालीन दुनिया में हो रहे बदलाव के बरक्स यदि आपकी स्त्री की ही बात करें तो इस बदलाव को किस तरह देख रहे हैं ?

आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्रभावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते हुए सरोकारों को स्वीकार कर ले. हमारे सामने जो खतरा आसन्न है, उससे एकबारगी लगता है कि इस आपाधापी में उसकी अपनी पहचान न खो जाए.

समकालीन दुनिया के बदलते परिवेश के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है, जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है. इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृध्द होता है, उसमें यह बाज़ार आमूल चूल परिवर्तन करके एक अलग दुनिया रचेगा, जिसमें उस परिवेश विशेष की निजता के लोप होने का खतरा नजर आता है.• चित्रकला एक तरह से साहित्य की पड़ोसी होती है, तो आप किन कवियों, कथाकारों को पढ़ते और गुनते हैं? क्या इससे आपकी कला प्रभावित होती है और यदि होती है तो किस तरह?

' कबि और चितेरे की डाड़ामेडी' कहानी आपने ज़रुर पढ़ी होगी. मैंने भी पढ़ी है. और ठीक से जिसको पढ़ा है उसमें सबसे उपर मुंशी प्रेमचंद और रेणु का नाम आता है. उसी क्रम में शरतचन्द्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, धर्मवीर भारती, राही मासूम रजा को पढ़ने तथा समकालीन कथाकारों में कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, शिवमूर्ति, से. रा. यात्री, संजीव और कुंअर बेचैन के करीब होने का सुअवसर मिला है.

इन सभी के कथा-संसार ने मेरी कला को समृध्द किया है. इनके पात्र मुझे आमंत्रित करते हैं. नि:संदेह कला और रचनात्मकता के नाना स्वरुप एक-दूसरे के लिए एक अवकाश की उपस्थिति तो देते ही हैं.

• एक ऐसे समय में जब बाज़ार में करोड़ों रु. में कोई पेंटिंग खरीदी-बेची जा रही हो, कला के सामाजिक सरोकार को आप किस तरह देखते हैं ?

सदियों पुरानी कला का जो मूल्यांकन आज हो रहा है, वह कम से कम उस अनजाने कलाकार के लिए तो किसी भी तरह से लाभदायक नहीं है. दूसरी बात ये कि आज भी जिस प्रकार से बाजार में कला की करोड़ो रूपये कीमत लग रही है, उससे भले कलाकारों को प्रोत्साहन मिल रहा होगा, लेकिन यह शोध का विषय हो सकता है कि अंतत: बाज़ार में किसकी कीमत है? लेकिन इन सबके बाद भी हरेक कलाकार अपने समय के पृष्ठ तनाव से ही तो मुठभेड़ करता है. और इस पृष्ठ तनाव में उसका समाज और उसका सरोकार ही तो शामिल होता है.

• समाज का एक बड़ा वर्ग है, जिसके हिस्से में ज़िंदगी के दूसरे संघर्ष इतने बड़े हैं कि वहां कला के लिए कोई अवकाश नहीं है. आपके उत्तर को ही समझने की कोशिश करूं तो कला का बाज़ार और बाजार की कला की उपादेयता और कहीं-कहीं आतंक, अंतत: इस समाज को समृध्द नहीं कर रहे हैं. ज़ाहिर है, इसमें कला की जरुरत पर भी सवाल खड़े होते हैं ?


जीवन के सारे उपक्रम अंतत: इस दुनिया को सुंदर बनाने के ही उपक्रम हैं. कला के विविध माध्यम कहीं न कहीं हमारे कार्य-व्यापार को और सरल ही बनाते हैं. इसकी जरुरत इतनी आसानी से खत्म होने वाली नहीं है, हां आपूर्ति जब-जब कटघरे में खड़ी होगी, तब-तब इस तरह के सवाल जरुर उपजेंगे.

• कला के व्यावसायिकरण पर काफी बहस हो चुकी है. फिल्मों और विज्ञापनों की बात करें तो इसमें नई तरह की रचनात्मकता दिखाई दे रही है जो कि आम आदमी के काफी करीब भी नजर आती है. दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि उनमें एक तरह का सामाजिक सरोकार नहीं तो सामाजिक हलचल तो दिखाई दे ही रही है. पेंटिंग के बारे में आप क्या सोचते हैं?

यह कहना संभवत: सही नहीं है कि वर्तमान समय में फिल्मों एवं विज्ञापनों में सामाजिक सरोकार बढ़ा है या वे जीवन के अधिक निकट आई हैं बल्कि वास्तविकता तो यह है कि वह आम आदमी के जीवन से दूर होती जा रही हैं. इनमें जिस आम आदमी की बात होती है वह शहरी मध्यवर्गीय समाज है. निम्न वर्ग, गांव और उसके आदमी, उसमें कहीं नहीं हैं. इस पर भी वह शहरी मध्यवर्गीय जीवन को नहीं वल्कि उसके सपनों को ही दिखाते हैं या यूं कहें कि सपनों का कारोबार करते है.

कमोबेश पेंटिंग का भी यही हाल है. आए दिन समाचार पत्रों की सुर्खियां कला और कलाजगत के घाल-मेल को उजागर करती रहती हैं. कला में आज सामाजिक हलचल की जगह तिकड़मबाजी ने ले ली है. आज कला के बाजार में विविध प्रकार के द्वार खुल रहे हैं. जबकि कायदे से अभी तक चित्रकला की संभावनाओं पर बहस शुरु भी नहीं हुई है.

• राजनीतिक समाज और नागरिक समाज एक तरह से कला के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं. यहाँ तक कि अच्छी फ़िल्मों को भारत में कला-फ़िल्में कह कर एक तरह से हाशिए पर रख दिया जाता है और कहा जाता है कि वह कुछ ख़ास किस्म के लोगों के लिए बनाई गई फ़िल्म है, आम लोगों के लिए नहीं. कमोबेश यही स्थिति चित्रकला के साथ नज़र आती है जिसमें कला को समझने, सराहने और ख़रीदने का जिम्मा कुछ ही लोगों तक सीमित नज़र आता है. इस विद्रूपता को आप किस तरह देखते हैं?

आज की राजनीति में मुझे ऐसा नेतृत्व नहीं नजर आता, जो अपनी कला के कारण अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हो. हिंदी पट्टी में यह स्थिति और ख़राब है. नागर समाज में कला का यह स्वरुप और भी भोंडेपन के साथ उभर कर सामने आया है. चाहे वो वस्त्र का मामला हो या फिल्मों का. कला की दुनिया में एक खास किस्म का वर्ग उभर कर सामने आया है, जिसके लिए कला जीवन का विषय नहीं है. ऐसे वर्ग के लिए हरेक कला केवल निवेश का मुद्दा है.

• क्या आप ऐसा कोई समय आता हुआ देखते हैं जिसमें कला, बाज़ारनिष्ठ होते जा रहे समाज में आमजन तक पहुँचे, सभी उसे समझ सकें और उसकी सराहना कर सकें?

सिध्दांत के तौर पर कहें तो वह कला ही क्या जो आमजन के लिए न हो. लेकिन यह किंचित पीड़ा के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि कला और आमजन के बीच एक दूरी हमेशा से रही है और इसीलिए हमेशा से हमारे देश में कला को राजाश्रय में जाना पड़ा है. आमजनों के भरोसे कला का जीवित रहना न पहले संभव था और न अब है. इसलिए यदि समाज बाज़ारनिष्ठ होता जा रहा है तो यह एक शुभ संकेत इन मायनों में तो है ही कि शायद इसी तरह कला को राजाश्रय का मोहताज न होना पड़े. लेकिन जहाँ तक समझ का सवाल है तो इसके लिए जो संस्कार चाहिए, वो दुर्भाग्य से समाज में नहीं दे पा रहे हैं और इसलिए कला आमजन की समझ या पहुँच से दूर दिखाई देती है.

बुधवार, 21 जनवरी 2009

Exhibition in MUMBAI


Aadhi Aabadi
vk/kh vkcknh
Exhibition Of Paintings
by
Dr.Lal Ratnakar
Jehangir Art Gallery Mumbai,Gallery-3
161-B, Mahatma Gandhi Road,Mumbai-400001
(Kala Ghoda)
November 05th to 11th ,2008
11am to 07pm
Contact-09810566808,09868999781
www.ratnakarsart.com
artistratnakar@gmail.com

सोमवार, 25 अगस्त 2008

प्रेस क्लब आफ इंडिया द्वारा प्रायोजित प्रथम प्रेस क्लब गैलरी की पहली प्रदर्शनी


प्रेस क्लब आफ इंडिया द्वारा प्रायोजित प्रथम प्रेस क्लब गैलरी की पहली प्रदर्शनी -

मंगलवार, 27 मई 2008

डा.लाल रत्नाकर

About The Artist

About The Artist
Dr Lal Ratnakar , born on August 12 ,1957 in a remote village of Jaunpur Uttar Pradesh, has arrived on the art stage after much struggle. There was tremendous resistance from his family during his early days; since the elders of his family were physicians, and they wanted him to continue the family traditions.

Dr. Ratnakar completed his Ph.D work on Folk Art Of Eastern Uttar Pradesh under the able guidance of Prof. Anand Krishna from B.H.U. Varanasi. Since then he had worked on to bring out the beauty and pain of Indian women folk, belonging to the different parts of the country, onto the canvas, through some revolutionary colour schemes and realistic compositions. One can notice a hue of earthy tones all over his canvas. One can also observe that in his paintings, he had given more preference to women and their struggle with life. He is of the opinion that the expressive power of women is much greater than that of men and specifically among village women, it is distinctly noticeable.

Most of his works are melancholic, representing the general mood of rural women burdened by strictures imposed on them by the predominantly male chauvinistic society. As mentioned earlier his compositions are realistic with strong emotional undercurrents. One can liken his images to that of the characters in the stories of Munshi Premchand, who also chose the province of Poorvanchal as the centre stage of his creations (short stories and novels). On observing his paintings one can feel the emotions of the subjects portrayed in his works. Emotions as varied as anger, lust, insecurities, shame, sadness, love, hate, etc. Some of his works are so comprehensive that he had assigned different emotions to each of his subjects within a single frame. In one of his paintings he had filled silent moans of a bride, who is about to leave her parental home to a distant place where her in-laws reside, never to come back for good, not sure of what lies in store for her in days to come. The bride is going through a feeling of excitement as well as fear, It seems Ratnakar, like a spirit, has entered into the subject and read the feelings, himself.

Apart from sighs and cries of individual subjects Dr. Ratnakar had also dealt with the politics of the area under his study. He had given form to some political elements like cast supremacy and exploitation of the weak. At certain points he had criticised the clergy and at some places he had applauded the good works of the torch bearers of Indian culture. His language though looks simple, has many layers to it, one can appreciate it only by observing his work.

Dr. Ratnakar has also given his due to the society in general, and to the artist community in particular. He had been associated with Kaladham, a centre of art that came up at Kavi Nagar Ghaziabad. This is one of the best things to have happened in this part of NCR. Kaladham has an art gallery and an open-air theatre in a big compound, this is perfect space for art connoisseurs as they get opportunities to see the work of various artist as many exhibitions and workshops are organized here quite frequently. Dr. Ratnakar had painstakingly pursued the dream, was instrumental in arranging the funds and convincing the political leadership of Uttar Pradesh about the need of Kaladham. It was his stature as an artist that ultimately, led the leadership to consider his worthy proposal.

With artists abounding in numbers, standing out among the crowd is a major challenge. Some get the right hit, managing virtue of their talent and sheer originality. Dr. Lal Ratnakar undoubtedly belongs to this category. Dr. Ratnakar is an experimenter in his field. He had evolved his own bold style of expression which stands out among the crowd. His works hold a place of prominence in the artistic world. Ratnakar vividly portrays their everyday afflictions in wonderful colour combinations. Art lovers , Critics and Art Collectors have appreciated his work and it had found place in their hearts and homes. He had come a long way and he is bound to go much further. He is presently working as Reader in Department of Drawing & Painting MMH College Ghaziabad (CCS university Meerut)
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( Dr.Lal Ratnakar )artist
Studio & Residence:R-24, Raj Kunj, Raj Nagar,Ghaziabad-201 002, Uttar Pradesh, India, Ph.:0120 2828780
Mobile:09810566808, E-mail-artistratnakar@gmail.com,www.ratnakarsart.com

प्रदर्शनी उदघाटन