डॉ.लाल रत्नाकर
भारत के इस घिनौने समाज में आम आदमी कैसे जीता होगा, इन दिनों "जब संकट मुकाबिल हो और कानून लिखा हुआ हो" "उसका अनुपालन करने वाला अनुपालन ही न कर रहा हो" तो रास्ता ही क्या बचता है. उससे बड़ा अधिकारी जिसे इस बात का ज्ञान ही न हो कि करना क्या है ? और उससे भी ऊपर !
भगवान भरोसे देश चल रहा है कहते हैं देश तो दौड़ रहा है पंख लगाकर सोने के चाँदी के और भ्रष्टाचार पैदल है धरती पकड़कर चल रहा है, आम आदमी के साथ साथ खैर 'देर है अंधेर नहीं' कहावत कब चरितार्थ होगी देखना है.कुल मिलाकर सारे समाज में जिस तरह कि अराजकता फैली है उसका खुदा ही मालिक है कहीं भी अमन नहीं है अमन के लिए लोग औरों का चैन छीन रहे हैं , भ्रष्टाचार बाहर से नहीं अन्दर से आया है और उसको हम बढ़ा भी रहे हैं. हदें पार करने के बाद बचता ही क्या है किसके किसके तरह से रास्ता चुनना होगा पता नहीं है . पर हम क्या करेंगे इसका क्या हिसाब है किसके पास है ?
गैर बराबरी की बात करना बेमानी होता जा रहा है , बराबरी के लिए जो मानदंड बनाये जा रहे हैं उनका आधार क्या है यह देखने का नजरिया क्या है , यह सारे ऐसे कारण हैं जिनका स्थापन और उनका मूल्याङ्कन अपने आप में आधार हैं और एसा आधार कहाँ मिलेगा.
गैर बराबरी की बात करना बेमानी होता जा रहा है , बराबरी के लिए जो मानदंड बनाये जा रहे हैं उनका आधार क्या है यह देखने का नजरिया क्या है , यह सारे ऐसे कारण हैं जिनका स्थापन और उनका मूल्याङ्कन अपने आप में आधार हैं और एसा आधार कहाँ मिलेगा.
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